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"दोससयमूलजालं" पुवरिसि विवज्जियं जइ दंतं, अत्थंवहसि अणत्थं, कीनस निरत्थं तंवयंचरसि ॥१॥ द्रव्य सइकडो दोषोंका मूल है पापोपादानमें पूख्य हेतु है दुर्गतिका मुख्यकारण है साधुवोंके सर्वथा त्याग होवे है गृहस्थोंके परिग्रहप्रमाणबत होता है आचार्य उपदेश करते हैं पूर्वरि षियोंने मनाकिया धन जो रखे तो व्रतनिरर्थक होवे, महाराज ? हम श्रमण हैं धनकों हाथसेंभि नहिं स्पर्शकरते हैं लेणा रखना कैसे होवे, राजा गणिवरके चरणोंमे मस्तक लगाके नमस्कार करके बोले भो महात्मन् ? निर्लोभियोंमें शिरोमणि आप हों तथापि तीन लाख द्रव्य लिये सिवाय मेरे मनमें समाधि न हो इस वास्ते कृपा करके मेरे मनमें जेसे बने वेसा समाधिउत्पन्नकरणा आप जैसे उत्तम पुरुषोंका अनुग्रह है, तब श्रीगणिवर बोले जब आपका महान् आग्रह हे तब चित्रकूट नगरमें श्रावकोंने दो जिनमंदिर वनवाये हैं उहां पूजाके वास्ते दो लाख द्रव्य आपकी मंडिसै दिरादो, वाद राजा संतोष प्राप्त होके बोला शाश्वत दान रहेगा वाद उसीतरह द्रव्य दोलाख दिया तथा श्रीजिनबल्लभगणि विद्वान् परोपगारी धार्मिक कार्यकरणेमे तत्परहै ऐसी सर्वत्र प्रसिद्धि भई । बाद श्रीनागपुरनगरमें श्रावकोंने नवीनदेवघर और श्रीनेमिनाथस्वामीका नवीन बिंब कराया है ओर उण श्रावकोंका यह अभिप्राय भया कि महाचारित्रिया श्रीजिनवल्लभगणिवरोंकों गुरुकरें ओर गणि श्रीके हाथसे प्रतिष्ठा करावेंगे ऐसा विचारके बडे आदरसै सर्वकी सम्मतिसै महान्बहुमानसै श्रीजिनबल्लभगणिजीकों बीनति
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