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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकान्तमें श्रीजिनप्रसन्नचन्द्रस्वरिजीको कहा, मेरे पट्टमे श्रेष्ठलम में श्रीजिनवल्लभगणिको स्थापणा, इसतरे मुक्तिनगरकी साक्षात् सोपानपंक्ति होवे वैसी श्रीनवांगवृत्तिका भव्य लोकोंको उपदेश दे के, सिद्धान्तमें कहे हुवे, विधिसें अणशणआराधना संलेखना करके समाधिसें पंचपरमेष्ठीनमस्कारका स्मरण करते हुवे श्रीमान् अभयदेवसूरिजी वि० सं० १९६७ में कवडवंजनगर में स्वर्ग निवासी हूवे, और श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिजी कोंभी श्रीअभयदेवसूरिजीके पट्टमें मुख्याचार्यपद कहेप्रमाणे देनेका अवसरनहिं मिला, वादमें श्रीजिनप्रसन्नचन्द्रसूरिजीनें भी अपणें आयुके अन्तसमय श्रीदेवभद्रसूरिजीको वीनति करी, यह पूर्वोक्त सुगुरुका उपदेश आपको अवश्यहि सफल करणा, वह सुगुरुका उपदेश करणेकुं में समर्थ नहिं हूवा हूं, तब श्रीदेव भद्रसूरिजीनें श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिजीका वचन अंगीकारकरा, वर्त्तमान योगकरके इसतरे हि करेंगें, आपको मनमें समाधिरखना, किसीत रेकी चिंता करणीनहिं, इसतरे प्रसन्नचन्द्रसूरिजी कों श्रीदेवभद्रसूरिजीनेंकहा, और श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य भी कितनाकालपर्यंत श्रीअणहिलपुरपाटन भूमिमें विचरके, इहां गुजरातदेशमें किसीकोभी वैसा विशेष बोध करणेकुं नहिं समर्थ होवें हैं जिस्सें मनमें समाधान उत्पन्न होवे, ऐसा मन में विचारके, तीनठाणासें आगमविधि करके और श्रेष्ठशकुन करके भव्य जनमनरूपी क्षेत्रभूमिकामें भगवान की कहीहुई विधिकरके धर्मवीजवाणेके लिये, श्री मेवाड आदि देशोंमें विहार करते हुवे, उस वक्त मेवाडआदि सबहि देश प्रायेंकर चैत्यवासीआचायोंकरके व्याप्तयें, वहां सब हि लोक For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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