________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९८
अर्थ यह महात्मा धन्य है संगरहितश्रेष्ठ मुनि है जिके तृणकी कुटीया वगेरे परभी खत्व नही है ॥ १ ॥ इत्यादि वचन समूहसै लोक प्रशस्य धन कनक पुत्र स्त्री वजन परिजन त्यागरूप, अपरिग्रहताका मुख्यास्पदभूत, सिझातर उपाश्रयका देनेवाला aat उपाश्रयका मालिक जो होवै वो सिझातर होता है, इत्यादि बहुत तरेका सिद्धांत अक्षर देखनेसे भया है तात्विक बोध ऐसै पंडितजनबहुमत उपाश्रयमेंहि सत्यअनगारनाम धारवाले साधु अवस्थान कहते है, अपवादस्थानसैभी जिनगृहमे रहणा नहि कहते है इतने कहणेसै जिनमंदिरमे नहि रहणा सिद्ध हुवा, तब सूराचार्यकुं निरुत्तरकरके ऊर्ध्वभुजा करके श्रीजिनेश्वरसूरि बोले सो कहते है श्लोक ॥
एवं सिद्धांतवाक्यैर्बहुविधघटनाहेतुदृष्टांतयुक्तरुक्तैरस्माभिरेतैरवितथसुयथोद्भासनोष्णांशुकल्पैः । कुग्राहग्रस्तचेताः परगृहवसतिं द्वेष्टि योऽसौ निकृष्टो, दुर्भाषी बद्धवैरः कथमपि न सतां स्यान्मतो नष्टकर्णः ॥ १ ॥ भावार्थ, सिद्धांत अक्षरोंसे बहुत प्रकारका वचन हेतु दृष्टांत सहित हमने सत्य शोभन यथोद्भासन सूर्यकल्प वचन कहै सो कुत्सित आग्रहमे ग्रस्तचित्त यह वादी परघरवसतिका निषेध करता है और दुर्भापी बद्धवैर द्वेष करे सो सज्जनोंके कैसे मान्य हो ॥ १ ॥ इति ऐसा सभाके लोकोंको आनंदित करके राजादिकको प्रतीतिके लिये औरभी जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ! आपके लोकमें क्या 'पूर्वपुरुषप्रदर्शित नीति प्रवर्त्ते है, अथवा
For Private And Personal Use Only