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हेतु नहि है ॥५॥ पांच हेत्वाभास रहित होनेसे देवद्रव्य उपभोगादिमत्वहेतु शुद्ध है इसलियै भगवान्का गुण गाना स्त्रीयोंका मंदिरमे नाचना, शंख पटह मेरी मृदंगादि वादिन वादन, मालती वगेरह पूष्पोंका सुगंध जिन भवनमाला पूजा मंडप रचनादि भक्तिसै चैत्यनिवासमें देवद्रव्यका उपभोग होता है, लोकमेभी कहते है ॥
यदीच्छेन्नरकं गंतुं, सपुत्रपशुबांधवः । देवेष्वधिकृति कुर्याद्गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥१॥ नरकाय मतिस्ते चेत्पौरोहित्यं समाचर । वर्ष यावत्किमन्येन, माठपत्यं दिनत्रयम् ॥२॥ अर्थ जो पुत्रपशुबांधवसहित नरक जाणेकी इच्छा करे सो देवगृहमें निवासकरे, गोशालामें और ब्राह्मणोंके घरोंमें ॥१॥ नरक जाणेकी बुद्धि होवे तो पुरोहितपणा एकवरसतककरो, जादा कहणेसै क्या तीन दिन मठपतिपणा करो ॥२॥ इत्यादि लौकिक लोकोत्तरनिंदनीय होनेसै मठपतिपणेसै दीर्घसंसारकार्य आशातनासै कंपमानसाधु जिनधर्ममे पूर्णबुद्धिश्रद्धावालेमि जिनगृहमे नहि रहतेहै लिखाहै (सामीवासावासे उवागए) इत्यादि आवश्यक चूादि शास्त्रोंमे बहुत पाठ देखणेसै साक्षातीर्थकर गणधरोंसे सेवित (संविग्गं सण्णिभई ) इत्यादि तीर्थकरादिकोंने अनेक प्रकारसै कहा तथा. धन्या अमी महात्मानो, निःसंगा मुनिपुंगवाः । .. अपि कापि वकं नास्ति, येषां तृणकुटीरके ॥१॥
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