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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सपरीभोलाइहां नहीं मान्यता कर असिद्धनही है, जिनगृहमें रहते देवद्रव्यका उपभोग होता है सोने बैठने भोजनवगेरे करणेसै अनेक भवमें भयंकरफलअवश्य होता है ॥ १ ॥ विरुद्ध हेतुभी नहि है मुनियोग्यता कर व्याप्यत्वमें विरुद्ध हेतु होता है ऐसा इहां नहीं है ॥ देवस्सपरीभोगो, अणंत जम्मेसु दारुणविवागो। जं देवभोगभूमी, वुड्डी न हु बट्टइ चरित्ते ॥१॥ देवद्रव्यका परिभोग अनंतभवमे दारुण विपाकवाला होता है, जो देवभोगभूमी (जिनमंदिरकी भूमी) में रहै उसके चारित्रकी वृद्धि नहि होवै अर्थात् चारित्री न हो ऐसा सिद्धांतमें कहा है देव भूमीमें रहते यतिके चारित्रके अभावसै भयंकर फल कहा है ॥२॥ सत्प्रतिपक्षभी नही है आगमोक्तत्वात् यह वादीके प्रतिबल अनुमानको पहलेहि खंडन किया है ॥ ३ ॥ बाधित विषयभी हेतु नहि है प्रत्यक्षादिकसै अपहृत विषय न होनेसै "प्रत्यक्षसै हि इसवक्त जिनगृहमे रहना देखणेमें चैत्यवासके धर्मी मुनिअयोग्यता साध्यधर्महेतुविषयको बाधित होनेकर विषयापहारसै कैसे हेतुबाधितविषय नहि है ? ऐसा नहि कहना" इसवक्तमे मुन्याभासोका जिनगृहमे रहना देखणेसभि चैत्यवासको मुनि अयोग्यता बाधितपणा नहि है इसकारणसै हेतुकुं विषयापहारके अभावसै बाधित विषयता नही है ॥ ४ ॥ इसलियै चैत्य मुनियोंके उपभोग योग्य है आधाकर्मादि दोषरहित होनेसै असा तुमारा हेतु उक्तन्यायसै मुनियोंको चैत्योपभोगभोग्यता देवद्रव्य उपभोगादि दोषों करके आगममे बाधित होनेसै कालात्ययापदिष्ट For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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