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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधुनिक पुरुष प्रवर्तित नीति प्रवर्ते है, राजा बोले हमारे सब दैशमेभि हमारा पूर्वज बनराजचावडाकी नीति प्रवर्ते है और नहि, तब जिनेश्वरसूरि बोले हेमहाराज! हमारे सिद्धांतमें श्रीतीर्थकर और गणधर और चवदे पूर्वधारि वगेरेने जो मार्ग देखाया वो प्रमाण करते है और नहि, राजा बोले इसी तरहहि पूर्वपुरुष व्यवस्थापितहि मार्ग सर्वत्र प्रमाण होता है, जिनेश्वरसरिने कहा हेमहाराज ! हम दूर देशसै आयेहै सिद्धांतपुस्तक साथमें नहि लायेहै इसलिये इणोंके मठोंसे पुस्तक मंगवावै सो आपको प्रतीतिके लिये सन्मार्गनिश्चयके अक्षर देखावै, तब राजा बोले बहुत युक्त कहते है अहो श्वेतांबराचार्यों ! जैन पुस्तक मेरे पुरुषकुं साथमे लेजाके लावो, तव पुस्तकलाये जो पहले हाथमे आया सो खोला, वो श्रीदेवगुरुके प्रसादसै चउदे पूर्व धारिका रचाभया दशवकालिक निकला उहां पहले यह श्लोक निकला यथा अन्नट्ठपगडंलयणं, भएन सयणासणं, उच्चारभूमिसंपन्नं, इथिपसु विवजियं ॥१॥ इत्यादि राजा बोले वांचो. जिनेश्वरसूरि बोले चैत्यवासी वांचे तव राजाने चैत्यवासीयोंसे कहा आपवांचौ. चैत्यवासीयोंने यह पाठ वांचते छोड दीया जिनेश्वरमरि बोले हे महाराज ! अन्यत्र रात्रिमें चौरि होवे है राजसभामें दिनकों चोरि होति है, राजा बोले आप वांचो जिनेश्वरथरि बोले पुरोहित वांचै तव राजाकी आज्ञासै पुरोहितने (अन्नटुंपगडंलयणं) इत्यादि पाठ वांचा अर्थ॥ गृहस्थने अपणेवास्ते अर्थात् साधुसे अन्यार्थ किया घर सय्या For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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