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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha १९२ वगैरे दोष नहि लगते है, उसकारणसे पूर्वपक्षिने कहा इदानी जिनगृहवास ही साधुवोंके संगत मालुम होता है इत्यादि, यत्यर्थक्रियमाणउपाश्रयमें आधाकर्मादि दोष होता है इहां तक सोवि अधिकतर दोष कवलित होणेसे चोरादि त्रास पिशाचादिभयकल्पनाकरे सो कहते है, परघरमें ( उपाश्रय ) कदाचित् अधाकर्म अंगनासंसर्ग वगेरे दोष देखनेसे उपाश्रयका त्यागकरके जिनमंदिरमेरहते सीलवान साधुवोंके जिनमंदिरमे शृंगारवती स्त्रीयोंके आनेसे गीतध्वनी करणेसे वैस्यादिकका नाटकहोनेसे वनिताकारूपादिदेखनेसे मन्मथका उद्दीपन होता है इसलिये यह उपस्थित भया । यत्रोभयोः समो दोषः, परिहारश्च तादृशः। नैकपर्यनुयोज्यः स्यात्, तादृशार्थविचारणे ॥१॥ जहां दोनुमें सदृश दोषहोता है, समाधानभि वैसाहि होता है वैसा अर्थ विचारणमें एक उत्तर न होता है ॥१॥ हमारे पक्षमें स्त्रीसंसक्तपरघरमें कभि रहते उक्त दोष यतना करणेसे नहि होता और तुमारे पक्षमें तो जिनमंदिरमें रहणा सर्वथा वर्जित होनेसे कहां भि यतना नहि कहणेसे उक्तदोषकी पुष्टी कोण मनाकर सके, ऐसा नहि कहना गृहस्थोंका घर सांकडाहोवे यतना करणेसेवि कथितदोषसे मुक्त होना मुस्किल है, प्रमाण युक्त घरमें यतिका आश्रयकहा है उहां उक्त दोष नहि होता है गृहस्थ संपूर्णघरसमर्पणकरे तथापि यति मितअवग्रहमेंहि रहे ऐसा सूत्रमे कहा है, प्रमाण युक्त परघरके लाभमे तो संकीर्णमे भि यतनासैं रहते दोष नहि है, कहा है For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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