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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१८ अकगुरुणिण्हवेणं सूरियासंमि जिणमयं सोउ । परिवज्जिय सावळं पवज्जागिरिं समारूढो ॥ ४१ ॥ अर्थ:- नहीं किया है गुरूकानिषेधजिसने ऐसा आचार्यके पास जैनधर्म सुनके सावद्यका त्याग किया और प्रव्रज्यापर्वतपर आरूढ़ भया अर्थात् दीक्षा लिया ॥ ४१ ॥ सीहत्तानिक्खतो सीहत्ताए य विहरिओ जोउ । साहियनवपुव्वसुओ संपत्तमहंत सूरिपओ ॥ ४२ ॥ अर्थ :- सिंहके जैसा निकले औरसिंहके जैसाही विचरे और कुछ अधिक नव पूर्वपदे और आचार्यपद पाया ऐसे ॥ ४२ ॥ सुरवरपहु पुट्ठेणं महाविदेहमि तित्थनाहेणं । कहिउ निगोयभूयाणं भासओ भारहे जोउ ॥ ४३ ॥ अर्थ:- इन्द्रने प्रश्न किया महाविदेहक्षेत्र में तब सीमन्धरस्वामीने कहा निगोदके जीवोंका स्वरूपकहनेवाला भरतक्षेत्रमें इसवक्त में आर्यरक्षित सूरि: है ॥ ४३ ॥ जस्स सयासे सक्को माहणरूवेण पुच्छर एवं । भयवं फुड मन्नेस अ मह किन्तियमाउयं कहसु ॥ ४४ ॥ अर्थ :- जिसके पास इन्द्रः ब्राह्मण के रूपसे इस प्रकारसे पूछ हे भगवन आप प्रगट जानते हैं मेराआयुष्य कितना है सो कृपाकरके कहो ॥ ४४ ॥ सक्को भवन्ति भणिओ मुणिओ जेणाउयप्पमाणेण । पुट्ठेण निगोयाणं वि वण्णणा जेण निहिट्ठा ॥ ४५ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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