SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३७ सत्थव वित्थरिय, बुट्ठो कयसस्स संपओ सम्मं । नेव वायहओ न चलो, न गज्जिओ यो जए प्पयडो ॥ १२५ अर्थः- सर्वत्र विस्तारपाके वर्षा, अच्छीतरहसे धान वगैरह की उत्पत्ति करी जिसने वादरूप वायुसे नहीं नष्ट हुआ चंचल नही गाजाभी नहीं ऐसा जगतमें प्रसिद्ध ऐसे ।। १२५ ॥ कहमुचमिज्जइ जलही, तेणसमं जो जडाणं कय बुढी । तिसेहिंपिपरेहिं, मुअइ सिरिं पिहु महिज्जतो ।। १२६ ।। अर्थः- समुद्रकी उपमा कैसे करी जावे समुद्र पानीकी वृद्धिः करनेवाला है देवोंने मथा तब लक्ष्मी उत्पन्न भई उसको छोड़ दी ।। १२६ ।। सूरेण व जेण समुग्गयेण, संहरिय मोह तिमिरेण । सहीद्वीणं सम्मं, प्पयडो निब्बुई पहो हूओ ॥ १२७ ॥ अर्थ:- दूर किया है मोहरूप अंधकार जिनोंने ऐसा ऊगाहुआ सूर्यके जैसा जिणुने सम्यकदृष्टि जीवोंको मोक्षमार्ग दिखाया प्रगट किया ऐसा ॥ १२७ ॥ वित्थरियममलपत्तं, कमलं बहु कुमय कोसिया दुसिया । तेयस्सीणमपि तेओ, विगओ विलयं गया दोसा ॥ १२८ ॥ अर्थ : - विस्तार पाया है निर्मल पत्र जिसका ऐसा ज्ञानरूप कमल बहुत कुमतरूप घुग्घुओं करके दूषित हुवा तथापि तेजखि - ओंकाभी तेज नष्ट होनेसे दोष राग द्वेषादि नष्ट होगए ऐसे ॥ १२८ विमलगुण चकवायावि, सङ्घहा विहाटिया विसंघहिया । भ्रमरेहिं भमरेहिंपि, पावओ सुमण संजोगो ॥ १२९ ॥ २२ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy