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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ:-निर्मलगुणवाले चक्रवाकभी अर्थात् ज्ञानादिगुणयुक्त ऐसे सर्वथा दूर होगए थे उन्होंको मिलाया परिभ्रमण करनेवाले ऐसे भ्रमरोंके जैसे साधुओंका सम्बन्ध किया ऐसे ॥ १२९ ॥ भव जण जग्गिय, मवग्गियं दुट्ट सावय गणेण । जलमवि खंडियं, मंडियं य महिमंडलं सयलं ॥ १३० ।। अर्थः-भव्यप्राणियोंको जगाया और चैत्यवासी श्रावकसमुदायने नहीं खंडन किया अर्थात् खंडन नहीं करसके जिसपर हाथ रक्खे उसका जाड्य नष्ट हो जाय ऐसे संपूर्ण पृथ्वीमंडलको शोभित करनेवाले ऐसे ॥ १३० ॥ अस्थमई सकलंको, सया ससंको विदंसिय पओसो। दोसोदये पत्तपहो, तेण समं सो कहं हुजा ॥ १३१ ॥ अर्थः-सदा कलंकसहित दिखाया है प्रदोष जिसने ऐसा चन्द्रभी अस्त होता है और रात्रिमें प्रकाश होता है जिसका ऐसे चन्द्रके समान वह कैसा होवे ऐसे ॥ १३१ ।। संजणिय विही संपत्त गुरुसिरी जोसया विसेस पयं । विण्णुव किवाण करो, सुर पणओ धम्मचक्कधरो १३२ अर्थ:-प्रचलित किया है विधिः वाद जिनोंने पाई है युगप्रधानपदरूप लक्ष्मी जिनोंने ऐसा जो निरंतर विष्णुके जैसा दया और आज्ञाका करनेवाला देवोंकरके वंदित ऐसा क्षमादि धर्मचक्रको धारनेवाला ऐसा ॥ १३२॥ दसियवयणविसेसो, परमप्पाणं य मुणइ जो सम्म। पयडि विवेओ छच्चरण, सम्मओ चउमुहुच जए ॥१३३॥ संजणिय किवाण करी है विधिः वादतर विष्णुके For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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