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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ जैसा जैन सिद्धान्तको धारणकरनेवाला ऐसा युगप्रवर जिनदत्तआचार्यनें कहा सूत्रोंका तत्वार्थरत्नोंको धारनेवाला ऐसा ॥ ५८ ॥ तं संकोsयकुसमयकोसिअकुलममलमुत्तमं वंदे । पणयजणदिन्नभद्दं, हरिभद्दपहुं पहातं ॥ ५९ ॥ अर्थः- वह संकोचित किया है कुसमय कौशिकका कुल जिसने और नमस्कार किया है जिन्होंने ऐसे लोगके कल्याण करनेवाले निर्मलउत्तम प्रकाश करते हुए ऐसे हरिभद्र आचार्यों को मैं नमस्कार करूं ॥ ५९ ॥ आधारवियारणवयण, चंदियाद लियसयलसंतावो । सीलिंको हरिणकुत्र सोहइ कुमुयं वियासंतो ॥ ६० ॥ अर्थः- आचारविचारणरूपवचनचन्द्रिकासे दूर किया है सम्पूर्ण संताप जिन्होंने ऐसे कुमुदको विकसित कर्ता चंद्रके जैसा सीलंकाचार्य शोभते हैं ॥ ६० ॥ तयनंतरं दुत्तरभवसमुद्दमजंतभव सत्ताणं । पोघाणुव सूरीणं, जुगपवराणं पणिवयामि ॥ ६१ ॥ अर्थः- तदनंतर दुस्तरभवसमुद्रमें डूबते हुए भव्यप्राणियों को तारमें जहाज जैसे युगप्रधान आचार्योंको नमस्कार करूं ।। ६१ ।। गयरागरोसदेवो, देवायरिओ य नेमिचंद गुरु । उज्जोयणसूरिगुरु, गुणोह गुरुपारतंतगओ ॥ ६२ ॥ अर्थः-- गतरागद्वेषदेव के जैसे देवाचार्यनेमिचंद्रसूरि और उद्यो तनसूरि गुरुपारतंत्रगत गुणोके समूह ऐसे ।। ६२ । For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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