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सिरिवद्धमाणसूरी, पवद्धमाणाइरित्तगुण निलओ । चियवासमसंगयमवगमित्तु वसहिहिं जोवसउ ॥ ६३॥ अर्थः - श्री वर्धमानसूरि प्रवर्धमानविशेषगुणकास्थान चैत्यवासको असंगत जानके वस्तीवासअंगीकार किया अर्थात् श्रीउद्योतनसूरिजीकेपास चारित्र उपसम्पत किया ।। ६३ ॥
तेसिं य पयपउम सेवारसिओ भमरुव सङ्घ भमरहिओ । ससमय पर समयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्था ॥ ६४ ॥ अर्थः- श्री वर्धमानसूरिके चर्णकमलकी सेवामें रसिक भ्रमरसदृश सर्वभ्रमरहित स्वसमयपरसमयपदार्थसमूह के विस्तारणमें समर्थ ऐसे ॥ ६४ ॥
अणहिलवाडए नाडइव, दंसिय सुप्पत्त संदोहे | परपए बहुकविदूसगे य, सन्नायगाणुगए ॥ ६५ ॥ अर्थः- अणहिल्लपाटन नगरमें नाटकसदृश दिखाया सत्पात्रका समूहजिन्होंने बहुतपद और बहुतविदूषक जिसमें ऐसा सत् नायक अनुगत रहतेभी ।। ६५ ॥
सढिपदुलहराए, सरसह अंकोवसोहिए सुहए । मझे रायसहं पविसिऊण, लोयागमाणुमय ॥ ६६ ॥ अर्थः- श्रीमंत दुर्लभराजा मध्यस्थरहते सरस्वती अंकउपशोभित सुख देनेवाली राजसभा में प्रवेशकरके लोक आगम, अनुमत ॥ ६६ ॥ नामायरिहिं समं, करिय विधारं वियारर हिएहिं । वसइहिं निवासो साहूणं, ठाविओ ठाविओ अप्पा ॥६७॥
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