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जावेतो ठीक है, आचार्यश्रीनें कहा अहो श्रावको यह धर्मकार्य किया जाय इस समय क्या संदेह है, अर्थात् निसंदेह अवश्य करणीय यह धर्म कार्य है ऐसा निश्चय तुमजाणों, यह धर्मकार्य अवश्य आजहि करणेमें आवेगा, यह आचार्यश्री का वचन श्रवण कर, वाद मे आचार्यश्री के साथ श्रावकादि संघनें विस्तार पूर्वक विधिसहित गर्भापहार कल्याणक आसोज वद १३ के रोज आराधन करा, इसलिये समाधान हुवा, दूसरे दिन गीतार्थ श्रावकोंनें विचार करा, वह यह है अविधि मार्ग में प्रवृत्ति करनेवालोंके साथ रहेनेसें, विधि मार्गके विरोधि पक्षवालोंके सह संबंध होनें सें अथवा रखनेसें जिनोक्त विधिबरोबर करणेंकुं नहिं समर्थ हैं इसलिये जो आचार्यश्री के सम्मत होवे तो ' उपरितले च देवगृह द्वयंकार्यते' ऊपरके मजल में दोय जिनमन्दिर कराया जायतो ठीक है, और अपणें समाधि होवे, यह अपणा अभिप्राय आचार्यश्रीकों निवेदन करा, तब आचार्यश्री भी बोले, यथा
जिन भवनं जिनबिम्ब, जिनपूजां जिनमतं यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिव सुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ १ ॥ व्याख्या - जिनमन्दिर जिनप्रतिमा जिनपूजा जिनधर्मकुं जो पुरुष करे, उसपुरुष के मनुष्यदेव मोक्षका सुखरूपफल हस्तपल्लवमें रहे हुवे हैं, ॥ १ ॥ इस देशना करके श्रद्धा प्रधान श्रावकोंने जाणा कि जो हमारा विचार है वह श्रीगुरुमहाराजकों वांछित हिहै, यह लोकोंमें वात भइ के जैसे इन वाचनाचार्य जिनवल्लगणिके भक्तश्रावक लोक दूसरा मन्दिरकरावेंगे, इस बातकुं सुणके, प्रहलाद नामक श्रावक बड़ाचैत्यवासीश्रावकच हुदेव नाम सेठनें श्रीजिनवल्लभगणि वाचनाचार्यजीकों सुणाणेके लिये
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