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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥अब समवसरनका किंचित स्वरूप लि०॥ प्रथम भुवनपति, वायुकुमारदेवता, १ योजन पृथ्वीका कचरादिक दूरकरके शुद्ध करे ( तदनंतर) भुवनपति मेघकुमार नामें देवता १ योजन पृथ्वीपर सुगंधि जलकी वर्षा करे (तदनंतर) व्यंतर देवता उसी पृथ्वीपर गोडे प्रमाण सुगंधि पुष्पोंकी वर्षा करे ( पीछे ) व्यंतरदेव पुष्पोंके ऊपर, वनस्पतिकुं बाधा रहित, १ योजनमें, रत्नोंकी पीठका बनावे । इस पीठकाके ऊपर, भुवनपति देवता, रूपेमई गढ, सुवर्णमई कांगरांकी रचना करे । तिसके च्यारंदिशे, ४ दरवाजा । छत्र, चामर, तोरण, ८ मंगलीक, धूपघटी (प्रमुख) वर्णनसहित करे (तिसके अंदर) ज्योतिषी ( देवता ) रत्नमई कांगरायुक्त, सुवर्णमई कोट, ४ दरवाजासहित करे । (तिसके अंदर ) वैमानिक देवता, मणि रत्नमई कांगरासहित, रत्नमई कोट ४ दरवाजासहित करे ॥ दरवाजाका वर्णन पूर्ववत् जाण लेना, ( अब ) इसकोटके मध्यमें, रत्नोंमई १ पीठका बनावें । तिसके ऊपर मध्यभागमें १ रत्नमई स्थटक, वृक्षका थांणा वनावै । तिसके ऊपर, छत्र चामरादि विभूति सहित अशोकवृक्षकी रचनाकरै जिस अशोकवृक्षके नीचे, रत्नजडित सुवर्णमई ४ दिशे ४ सिंहासन स्थापना करे । तिसऊपर, तीन छत्र (अरु) दोनुं तरफ चामर रहे । (और) इसी तरह वणावसहित भगवान्के बैठनेके लिये, स्वर्णरत्नमई मध्यकोटके बीचमें देवछंदेकी रचना करे। ऐसा वर्णन सहित समोसरणमें, भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामी पूर्वके दरवाजैसे प्रवेशकरके, चैत्य वृक्षके चौत For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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