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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३१० जिनवद्धमानमुनिवड, समप्पियासेसतित्थभारधरणेहिं । पडिहय पडिवक्खेणं, जयंम्मि धवलाइयं जेण ॥६॥ अर्थः-श्रीजिनवर्धमानस्वामीतीर्थकरोंने अर्पण किया सर्व तीर्थका भार धारण करनेवाले ऐसे प्रतिपक्षको दूर किया जिन्होंने जगत्में उज्ज्वल है यश जिन्होंका ऐसे ॥६॥ तं तिहुयणपणयपयारविंद, मुद्दामकामकरिसरहं । अनहं सुहम्मसामि, पंचमहाणट्टियं वंदे ॥ ७॥ अर्थ:-तीनजगत्करके नमस्कृतहै चरणकमलजिन्होंका बन्धनरहितकामहस्तीके लिये सिंहसदृश निष्पाप दोषरहित पंचमगणधर सुधर्म. खामीको मैं नमस्कार करूं ॥७॥ तारुने विहु नो तरलतार, अत्थि पिच्छरीहिं मणो। मणयं वि मुणिय पवयण, सम्भावं भामियं जस्स ॥८॥ ___ अर्थः-योवनअवस्थामेंभी चंचलनेवाली स्त्रियोंकरके जिनका मन थोडाभी चलितनहीं हुआ ऐसे जानाहैप्रवचनका सद्भाव जिन्होंने ऐसे ॥८॥ मणपरमोहि पमुहाणि, परमपुरपट्टिएण जेण समं ।। समईकंताणि समत्त, भव्वजणजणिय सुक्खाणि ॥९॥ अर्थः-मनःपर्यव परमअवधिप्रमुख (१०) दसवस्तु मोक्षनगर प्राप्त भए जिन्होंके साथ चलीगई ऐसे समस्त भव्य प्राणियोंको उत्पन्न किया है सुख जिन्होंने ऐसे ॥९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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