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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ तिराजाके समयमें बहुत उन्नतिपर था, क्योंकि संप्रतिराजाका राज्य मध्यखंड और गंगापार और सिंधुपारके सर्व देशोंमे था, संप्रतिराजाने अपने नौकरोंको जैनके साधुओंका वेष बनाकर अ. पने सेवक राजाओंका जो शक, यवन, फारसादि, देशोंथे, तिन देशोंमें भेजे, तिनोंने तिन राजाओंकों जैनके साधुओंका आहारविहार आचारादि सर्व बताया और समझाया पीछेसें साधुओंका विहार तिन देशोंमें कराकर लोकोंको जैन धर्मी करा, और संप्रतिराजाने (९९०००) निनानवें हजार जीर्णयाने जीरण जिनमंदिरोंका उद्धार कराया, अर्थात् पुराना टूटा फूटांकों नवा बनाया, और छत्तीस हजार (३६०००) नवीन जिनमंदिर बनवाये, और सोने, चांदी, पीतल, पाषाण, प्रमुखकी सवाकोड प्रतिमा बनवाई, तिसके बनवाये मंदिर नाडोल गिरनार शत्रुजय रतलाम प्रमुख अनेक स्थानोंमें खडे हमने अपनी आंखोसें देखे हैं । और संप्रतिराजाकी बनवाई जिन प्रतिमा तो हमनें सेंकडो देखी हैं, इस संप्रतिराजाका परिशिष्ट पर्वादि ग्रंथोंसें समग्र अधिकार जाण लेना २ श्रीआर्यसुहस्ती सूरि आचार्यने उज्जयनकी रहनेवाली भद्रासेठा. नीका पुत्र अवंतीसुकुमालकों दीक्षा दीनी, और जहां उस अवंती सुकुमालने काल करा था, तिस जगे तिस अवंतीसुकुमालके महाकाल नाम पुत्रने जिनमंदिर बनवाया, और तिस मंदिरमें अपने पिताके नामसे अवंतीपार्श्वनाथकी मूर्ति स्थापनकरी, कालांतरमें ब्राह्मणोनें अपना जोर पाकर तिस मंदिरमें मूर्तिकों नीचे दावकर ऊपर महादेवका लिंग स्थापन करके महाकाल (महादेवका ) मंदिर For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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