________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Achar
१३५
प्रसिद्धकर दीया, पीछे जब राजा विक्रम उजयनमें हुआ, तिस अवसरमें कुमुदचंद्र, अर्थात् सिद्धसेनदिवाकर नामा जैनाचार्यने कल्याणमंदिर स्तोत्र बनाया, तब शिवका लिंग फटकर बीचमेंसै पूर्वोक्त श्रीपावेनाथकी मूर्ति फिर प्रगट हुइ ॥ __ इनका संबंध ऐसा है कि, विद्याधर गच्छमें, जब स्कंदिलाचार्यका शिष्य वृद्धवादि आचार्य थे, तिस अवसरमें, उज्जयनका राजा विक्रमादित्य था, तिसका मंत्री कात्यायन गोत्री देवऋषिनामा ब्राह्मण, तिसकी दैवसिका नाम स्त्री, तिनका पुत्र मुकुंद सो, विद्याके अभिमानसें सारे जगतके लोकोंकों तृणवत् (घासफुसशमान) समजताथा, और ऐसा जानता था कि मेरे समान बुद्धिमान् कोइभी नहीं, और जो मुझकों वादमैं जीतलेवे, तो मैं उसकाही शिष्य बनजाऊं, पीछे तिसने वृद्धवादीकी बहुत कीर्ति सुनी उनके सन्मुख जाने वास्ते सुखासन ऊपर बैठकें भृगुकच्छ (भरंच) कीतरफ चला जाता था, तिस अवसरमें वृद्धवादीभी रस्तेमें सन्मुख आता हुआ मिला, तब आपसमें दोनोंका आलाप संलाप हूआ पीछे मुकुंदजीने कहा कि, मेरे साथ तुम वाद करो, तब वृद्धवादीने कहा कि वादतो करूं, परंतु इस जंगलमें जीते हारेका कहनेवाला कोई साक्षी नहीं, तब मुकुंदजीने कहा कि, यह जो गौ चरानेवाले गोप हैं, येही मेरे तुमारे साक्षी रहे, ये जिसको कहदेंगे हारा सो हारा, तब वृद्धवादीनें कहा बहुत अच्छा येही साक्षी रहे, अब तुम बोलो, तब मुकुंदजीने बहुत संस्कृत भाषा बोली और चुप करी, तब गोपोंने कहा यह तो
For Private And Personal Use Only