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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ , गणधरवत् इस्सें विरुद्धपद है- “ पुण्यं पुण्येन कर्मणा भवति, पापं पापेन कर्मणा भवति इत्यादि" इस्सें पुण्यपाप सिद्ध होते है, यह संशयभी भगवाननें दूर करा तब यहभी तीनसौ छात्रोंके साथ दीक्षित भया ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ तिस पीछे दशमा मेतार्य आया उसकों भी वेदकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियों यह संशय हुवा था, कि परलोक है किंवा नही है वो श्रुतियों यह हैं - विज्ञानधन, इत्यादि प्रथम गणधरवत् अभाव कथन श्रुति जाननी" तथा "सर्वैः अयं आत्मा ज्ञानमय इत्यादि" परलोक भाव प्रतिपादक श्रुति जाननी । इनका तात्पर्य भगवाननें कहा, तब मेतार्यजीनें निःशंक होकें तीनसौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ तिस पीछे इग्यारहमा प्रभास नामा उपाध्याय आया तिसके मनमेंभी वेद श्रुतियोंके परस्पर विरुद्ध होनेसें यह संशय था कि निर्वाण है कि नही है, वो श्रुतियों यह है - "जरामर्य वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं" इस्सें विरुद्ध श्रुति यह है - "ह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनंतंत्रह्मेति" इनका यह अर्थ तेरी बुद्धिमें भासन होता है कि अग्निहोत्र जो है सो जीव हिंसा संयुक्त है, और जरा मरणका कारण है, अरु वेद में अग्निहोत्र निरंतर करणां कहा है, तब ऐसा कौनसा काल है, कि जिसमें मोक्ष जानेका कर्म करीयें, इसवास्ते आत्माकों मोक्ष ( निर्वाण ) कदापि नहीं हो शक्ता है, अरु दूसरी श्रुति मोक्ष प्राप्तिभी कहती है, इसवास्ते संशय हुआ है, इसका जब भगवाननें उत्तर देके निशंक For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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