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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ ११ नडी लिपि । १२ नागरी लिपि । पारसी लिपि । १५ अनिमित्ती लिपि । मूलदेवी लिपि । १८ उड्डी लिपि || ( यह ) ब्राह्मी लिपि, देश विशेषके भेदसें, अनेक ( जैसेंकी ) १ लाटी । २ चौडी । ३ डाहली । ४ कानडी । ५ गौर्जरी । ६ सोरठी । ७ मरहठी । ८ कोंकणी । ९ खुरासाणी । १३ लाटी लिपि । १४ १६ चाणक्की लिपि । १७ अठारह प्रकारकी तरहकी हो गई । १० मागधी । ११ सिंहली । १२ हाडी । १३ कीरी । १४ हम्मीरी । १५ परतीरी । १६ मसी । १७ मालवी । १८ महायो | ( इत्यादि ) लिपि सिखाई ( तथा ) सुंदरी पुत्रीकों वाम हाथसें अंक विद्या सिखाई । ( और ) जो जगतमें प्रचलित कला है । जिनसे कार्य सिद्ध होते हैं । ( वे सर्व ) श्री ऋषभदेवने प्रव ताई है । तिसमें कितनीक कला, कई वार लुप्त हो जाती है । 1 फिर समय पाकर प्रगटभी हो जाती है ( परंतु ) नवीन कला, वा विद्या, कोइभी उत्पन्न नहिं होती है । जो कला व्यवहार, श्री ऋषभदेवजी ने चलाया है । उसका विस्तार, सर्व आवश्यक सूत्र से देख लेना || For Private And Personal Use Only श्री आदिराजायें, भरतकेसाथ ब्राह्मी जन्मी थी । तिसका विवाह तो, बाहुबलीकेसाथ किया ( और ) बाहुबलीकेसाथ, जो सुंदरी जन्मी थी । उसका विवाह भरतके साथ कर दिया । तबसें माता पिताकी दीवी हुई कन्याका विवाह प्रचलित हुवा | ( इससे ) पहले एक उदरके उत्पन्न हुबे, भाई बहिनके संबंध होता था ( वो ) दूर किया || ( तब ) लोकभी इसीतरे विवाह
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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