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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ उत्पत्ति हुई ॥ (जब) श्रेयांस कुमरनें आहार दिया । उस दिनसें सब लोक साधूकू शुद्ध आहार देनेकी विधि जाननें लगे ॥ ॥अब विद्याधरोंकी उत्पत्ति कहते है ॥ श्री ऋषभदेवस्वामी दीक्षा लियांकेबाद, १ हजार वर्षतक, देशोंमे छमस्थपणे विचरते रहे । तिस अवस्थामें । कच्छ (और) महाकच्छके बेटे । नमि, और विनीने, आकर, भगवान्की बहुत सेवा भक्ति करी (तब ) धरणेंद्र संतुष्टमान होके, ४८ हजार पठित सिद्धविद्या उनकुं देकर, वेतादयगिरीकी, दक्षिण और उत्तर, यह दो श्रेणीका राज्य दीया । ( तब ) तिनके वंशी सब विद्याधर कहलाए (इनही ) विद्याधरोंके संतानमें रावण, कुंभकर्ण, बालि, सुग्रीव, हनूमानादि, सर्व विद्याधर भए हैं। (एकदा) छमस्थ अवस्था में भगवान् विहारकर्ते, तक्षशिला नगरी गए। वहां बाहिर, बागमें काउसग्ग करके खडे रहे । यह खबर उहांके राजा, बाहुबलजीकुं हुई । ( तब ) बाहुबलीनें मनमें विचार करा । कि प्रभातसमें बडे आडंबरके साथ, पिता श्री ऋषभदेवजीकुं वांदनेकुं जाउंगा ॥ जब प्रभातसमें, वडे आईबरसें वांदनेकुं गया (तो) वहां भगवानकुं न देखा । वनमालीसें सुना (कि ) भगवान् तो, सूर्य उगतेही विहार कर गए (तब ) बाहुबली बहुत उदास हुयके, जहां भगवान्काउसग्ग मुद्रा में उभे थे । उसजगे कामे अंगुली घालकें (बाबा आदम, बाबा आदम ) ऐसे ऊंचे स्वरसें पुकारके, उसी चरनूंके ठिकाने, रत्न मई For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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