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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९२ त्रवालगच्छके श्रीधनेश्वरसरिजीके शिष्य श्रीभुवनचंद्रसरिजी उनके शिष्य शुद्धसंयमी श्रीदेवभद्रगणिने कौनसी वस्तु दी ॥ २ [प्रश्न] श्रीजगचंद्रजी बड़ी दीक्षा उपसंपदादि ग्रहण करके किस गच्छके और किस नवीनशुद्धसंयमी गुरुके शिष्य हुए मानते हो ३[प्रश्न] श्रीधर्मरत्नप्रकरण ग्रंथमें चित्रवालकगच्छके श्रीभुवनचंद्रसरि उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणि उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरि उनके शिष्य श्रीदेवेन्द्रसरिने यह उपर्युक्त अपने पूर्वजोंकी गच्छनामसहित गुरु-शिष्यपरंपरा मानना बतलाया है अन्य नहीं तो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी उक्तकथनसे विरुद्ध अपने मनसे बृहत्गच्छ तथा श्रीमणिरत्नसरि उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरि यह गुरु-शिष्यपरंपरा मानना क्यों बतलाते है ? ४ [प्रश्न ] श्रीदेवेन्द्रसूरिजीके उक्तकथनसे विदित होता है कि श्रीजगचंद्रसरिजीने उपसंपद दीक्षादि लेकर-चैत्रवालगच्छको तथा उस गच्छके श्रीदेवभद्रगणिजीको और उनके पूर्वजोंकी परंपराको स्वीकार किया और अपने प्रथम गुरु श्रीमणिरत्नसरिजीको तथा उनके पूर्वजोंकी परंपराको और उनको गच्छको त्यागा, तो फिर पट्टावलीमें उन गुर्वादिकोंको क्यों मानते हो? ५[प्रश्न] श्रीसत्यविजयजीने और श्रीयशोविजयजीने तथा श्रीनेमसागरजीने वा उनके गुरूने यतिपनके शिथिलाचारको स्याग कर क्रियाउद्धार किया तो योग १, बड़ीदीक्षा २, उपसंपद ३, पन्यासपद ४, उपाध्याय पद ५, किस दूसरे शुद्धसंयमी गुरुके For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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