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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८१ मार्गमें तीर्थकरकीआज्ञाप्रवर्तेहै वहमार्गअंगीकारकरनाहै ऐसा कहके देवधरउठाअपनेसाथमें जो श्रावककुटुम्बवगैरह के लोगआएथे उन्होंका विधिमार्गमें स्थिरपनाहुआ वाद वहांसे चलके श्रावकसमुदायसहित अजमेर पहुंचा श्रेष्ठभावसे श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजको वन्दना करी आचार्यश्रीने देवधरका अभिप्राय पहलेही जानाथा श्रीपूज्योंने देशना दिया तब देवधर परिवारसहित निसंदेहभया वाद श्रीपूज्योंकीप्रार्थनाकरी हे भगवन् कृपा करके आप विक्रमपुरके तरफ विहार करें आचार्य बोले जैसा अवसर वादमें विस्तार विधिसे जिनमंदिर बहुत जिनप्रतिमा और गणधरादि प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करके बहुत जिनशासनकी उन्नति करी अढाई दिनकी झुपडी जो कहि जावे सो उसवक्तकावना हुवा मकान हे उसमे अभि बहुत प्रतिमावगेरे निकले है और अजमेरसे पूर्व दिशि तरफ एक पर्वतमें बावनबीरका निवास था वहां आचार्य गए वहां बावन वीरोंको साधे वीर प्रत्यक्ष भए और बोले हम आपकी सेवामें हाजिर हैं आप आज्ञा करें ऐसे कहके वीर अदृश्य हो गए वाद परिवारसहित देवधर है साथमें जिन्होंके ऐसे श्रीआचार्य अजमेरसे बिहारकरके क्रमसे नगरप्रामादिकमें भव्योंको प्रति बोधते ऐसे विक्रमपुर पधारे प्रवेशोत्सव हुआ वहांके बहुत लोगोंको प्रतिबोधा परंतु जिस वक्त विक्रमपुर पधारे वहां पहलेसेही जनमारीका उपद्रव था आचार्य आयोंके बाद श्रावकोमें शांति भई परंतु और लोगोंने बहुतशांतिककाउपायकिया परंतु उपद्रवशांतभया नहीं तब नगरके लोगोंने श्रीपूज्योंसे विनती करी हे भगवन् हमारे गए वहांश तरफ एक पर्वमा प्रतिमावगेरे नि For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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