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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १२७ कीया । जब ब्राह्मणोंने "अहोकष्ट" इत्यादि सुना, और तिस यज्ञ वाडेमें शय्यंभव ब्राह्मणने यज्ञ दीक्षा लीनी थी, तिसने यज्ञ बाडेके दरवाजेमें खडेथके, अहोकष्टं इत्यादि मुनियोंका कहना सुनके विचार करने लगा, कि ऐसा उपशम प्रधान साधु होते हैं, इसवास्ते यह असत्य (झूठ ) नहीं बोलते हैं, इस्से मनमें संशय होगया, तब उपाध्यायकों पूछा कि तत्व क्या है, तब उपाध्याय ने कहा कि चार वेदमें जो कथन करा है सो तत्व है, क्योंकि वेदोंके शिवाय और कोई तत्त्व नहीं है, तब शय्यंभवनें कहा कि तू दक्षिणाके लोभसें मुझकों तत्व नहीं बतलाया है, क्योंकि राग द्वेष रहित, निर्मम, निःपरिग्रह, शांत, दांत, महांत मुनियों का कहनां झूठा नहीं होता है, और तूं मेरा गुरु नहीं तैनें तो जन्मसें इस जगत्कों ठगनाही सीखा है, इस वास्ते तूं शिक्षाके योग्य है, इसवास्ते यातो मुझे तत्व कह दे, नहीं तो तलवारसें तेरा शिर छेद करूंगा, ऐसें कहके जब मियानसें तलवार काढी, तब उपाध्यायनें प्राणांत कष्ट देखकें कहा हमारे वेदोंमेंभी ऐसें लिखा है और हमारी आम्नायभी यही है, जब हमारा कोई शिर छेद किया चाहे तब तत्व कहनां नहीं तो नहीं कहनां तिस वास्तेमें तुमकों तत्व कह देता हूं कि इस यज्ञ स्थंभ के हेठे अहंतकी प्रतिमा स्थापन करी है, और नीचेही तिसकों प्रच्छन्न होकर पूजते हैं, तिसके प्रभावसे यज्ञके सर्व विघ्न दूर हो जाते हैं, जेकर यज्ञस्थंभके नीचे अहंतकी प्रतिमा न राखें तो महातपा सिद्धपुत्र, और नारद, ये दोनों यज्ञकों विध्वंस कर देते For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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