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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३१३ तमपच्छिमं चउद्दस, पुवीणं चरणनाणसिरिसरणं । सिरिथूलभद्दसमणं, वंदे हं मत्तगय गमणं ॥ १९ ॥ अर्थः वह अंतके चतुर्दशपूर्वधारी ज्ञान चरण लक्ष्मीके शरण ऐसे श्रीःस्थूलभद्राचार्यको मैं नमस्कार करूं ॥ कैसे हैं स्थूलभद्रसूरि हाथीके जैसा है गमन जिन्होंका ॥ १९ ॥ विहिया अणमूहियविरियसत्तिणा सत्तमेण संतुलणा। जेणाजमहागिरिणा, समईकते वि जिणकप्पे ॥२०॥ अर्थः-की है अनवगुप्तवीर्यशक्तिकरके जिसउत्तम पुरुषने जिनकल्पीपना विच्छेद होनेसेभी तुलना जिन्होंने ऐसे श्रीआर्यमहागिरिः आचार्यको नमस्कार होवो ॥ २० ॥ तस्स कणिहूं लटुं, अजमुहत्थि सुहात्थिजणपणयं। अवहत्थियसंसारं, सारं सूरि समणुसरिमो ॥२१॥ अर्थः-आर्यमहागिरिके छोटे भ्राता आर्यसुहस्तिमरिः सुखार्थीलोगोंने नमस्कार किया है जिन्होंको ऐसे दूरकिया है संसारजिन्होंने ऐसे श्रेष्ठ आचार्योंका हम संस्मरणकरें ॥ २१ ॥ अजसमुदं जणयं, सिरीइ वंदे समुद्दगंभीरं । तह अजमंगुसूरिं, अजसुधम्म य धम्मरयं ॥ २२ ॥ अर्थः-आर्यसमुद्रसरिः लक्ष्मीकाजनक और समुद्रके जैसा गंभीर तथा आर्यमंगुस्सरिः और धर्ममेरक्त ऐसे आर्यसुधर्म सूरिः को नमस्कार करें ॥ २२ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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