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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ सुगुरुतरणीइ जिणसमय, सिंधुणो पारगामिणो सम्मं । सिरिभ बाहुगुरुणो यिए नामक्खराणि धरिमो ॥ १४ ॥ अर्थ:-सुगुरुरूप जहाजसे जैनसिद्धान्तसमुद्रका पारगामी सम्यक् ऐसे श्रीभद्रबाहुगुरुका मनमें नामाक्षर धारण करें ॥ १४ ॥ सो कहं न थूलभद्दो लहइ सलाहं मुणीणं मझंमि । लीलाइ जेण हणिओ सरहेण व मयणमयराओ ॥ १५॥ अर्थ: - वह थूलभद्रखामी मुनिगणमें कैसे प्रशंसा नहीं पावे जिसने लीलासे कामरूप मृगराजको अष्टापद सदृश होके हना ॥ १५ ॥ कामपईव सिहाए, कोसाए बहुसिणेह भरिआए । घणदजणपयंगाएवि, जीए जो झामिओ नेया ॥ १७ ॥ अर्थः- कामप्रदीपशिखा ऐसी कोशावेश्या बहुतस्नेहसे भरी भई बहुतजन पतंगदग्धभए जिससे ऐसीमेंभी नहीं ही दग्धभए ऐसे ॥ १६ ॥ जेण रविणेन विहिए, इह जणगिहे सप्पहं पयासंती । सययं सकज्जलग्गा, पहयपहा सा समिद्धावि ॥ १७ ॥ अर्थः- जिसने सूर्यके जैसी यहां लोगों के घरमें स्वप्रभाका प्रकाश निरंकिया तर खकार्य में लगी भई स्नेहवतीकी प्रभा नष्ट करी ॥ १७॥ जेणासु साविया साविया, चरणकरणसहिएन । सपरेसिं हियकए सुकय जोगउ जोगयं हुं ॥ १८ ॥ अर्थ :- जिसने शीघ्रचरणकरणसहित स्वपरहितकेलिये सुकृतके योग से योग्यतादेखके जिनवचनसुनाके श्राविका करी ॥ १८ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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