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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११७ इसीतरे इंद्रभूतिकों दीक्षित सुनके, दूसरा भाई अग्निभूति बडे अभिमान में भरकर चला और कहने लगाकि, मेरे भाईकों इंद्रजालीयेनें छलसें जीत के अपना शिष्यवनालीया, तो में अभी उस इंद्रजालीयेकों जीत के अपने भाईकों पीछा लाता हूं इस विचारसें भगवंत श्रीमहावीरजीकेपास पहुंचा, जब भगवानकों देखा, तब सर्व आइ वाइ भूल गया मुखसें बोलने की भी शक्ति न रही, और मनमें बडा अचंभा हुआ, क्योंकि ऐसा स्वरूप न उसने कभी सुना था और कभी देखा था, तब भगवाननें उसका नाम लीया, अभिभूतिनें विचारा कि यह मेरा नामभी जानते हैं, अथवा मैं प्रसिद्ध हूं मुझे कौन नहीं जानता है, परंतु मेरे मनका संशयदूर करे तो मैं इसकों सर्वज्ञ मानुं, तब भगवंतनें कहा हे अभिभूति तेरे मनमें यह संशय है कि कर्म है किंवा नहीं यह संशय तेरेकों विरुद्ध वेदपदों हुआ है क्योंकि तूं वेद पदोंका अर्थ नहीं जानता है, वे वेदपद यह है - " पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनाऽतिरोहति यजति यन्नेजति यद्दूरे यदुअंतिके यतरस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यत इत्यादि" इस्सें विरुद्ध यह श्रुति है - "पुण्यः पुण्येनेत्यादि" और इनका अर्थ तेरे मन में ऐसा भासन होता है कि, पुरुष अर्थात् आत्मा, एव शब्द अवधारणके वास्ते है, सो अवधारण कर्म और प्रधानादिकों के व्यवच्छेद वास्ते है, "इदं सर्व" अर्थात् यह सर्व प्रत्यक्ष वर्त्तमान चेतन अचेतन वस्तु "ग्रिं" यह वाक्यालंकारमें है यद्भूतं अर्थात् जो पीछे हुआ है और आगेकों होगा, जो मुक्ति तथा संसार सो सर्व पुरुष For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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