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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ मंदिरका सर्व पत्थर कोरणी मजूरीका, अठारे १८ क्रोड ५३ लाख आसरे द्रव्य खरच हुआ, विमलमंत्रीके करानेसें विमलवसहि नाम प्रसिद्ध हुवा, पीछे सर्व तैयार होनेसें संवत् एक हजार अठ्यासी, १०८८, में श्रीउद्योतनसुरिजीके सुशिष्य और श्रीजिनेश्वरसरिजी श्रीबुद्धिसागरसरिजीके श्रीगुरुमहाराज श्रीवर्द्धमानसूरीजीने प्रतिष्ठाकरी, वादघणे भव्यजीवोंकों प्रतिबोधके धर्ममे स्थिर करके धर्मकार्योंमें विशेष सहाय करके घणी शासनोन्नति करके अंतसमय सिद्धांतीय विधिपूर्वक समाधिसहित अणशण करके उसी वरषमें देवलोक गए यह मूलग्रंथ अभिप्राय है ॥ ३९ ॥ ॥४०॥ श्रीवर्द्धमानसरिजीके पट्टपर श्रीजिनेश्वरसरि हुए, यह प्रथम वाणारसी नगरीके रहीसथे, सोमदेव ब्राह्मण पिताथा दुर्लभराजपुरोहित शिवशर्मा ब्राह्मण मामा होवे है और सरसा नगरमें सोमेश्वर महादेवके वचनसें श्रीवर्द्धमानसूरिजीके पासदीक्षा ग्रहण करी, बादमे जैनसिद्धांत स्वगुरुमुखसें पढकर गीतार्थ भये, पीछे पंडित, गणि, वाचनाचार्य आदि पदवीयों क्रमसें प्राप्त करी, शुभशकुन निमित्तसें लाभ जाणके श्रीगुरुमहाराजके साथ अणहिलपुरपाटण पधारे वहां चैत्यवासी संप्रदायके आचार्योंके साथ प्रथम शास्त्रार्थ हुवा, पीछे स्वपट्टपर सूरिमंत्र विधिपूर्वक देके मुख्याचार्यपणेका गच्छाधिकार वगेरे सर्व दिये, पीछे श्रीदुर्लभराजदत्त खरतर विरुदकों धारण करते हुवे, और राजगुरु होनेसें सर्वत्र गुजरातप्रांतमें अस्खलित विहार करे, और अप्रतिबद्धपणे विहार करते हुवे जिनचंद्र १ अभयदेव २ धनेश्वर ३ हरिभद्र ४ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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