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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ राजासंबंधि प्रोहितका था तिसके अंदर पधारे तिस अवस रमें पुरोहित अपणे घरके अंदर बेठा था और अपणे सरीरमें तैलका मर्दन करताथा उतने पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें उस पुरोहितके आगे बैठके आशीर्वाद कहा यथा सर्गस्थितिक्षयकृतो, विशेषवृष संस्थिताः । श्रिये वः संतु विप्रेंद्र ब्रह्मश्रीधर संकराः ॥ १ ॥ व्याख्या - रचना करणा स्थिर रखना विनाशकरना येहि हंसशेषनागवृषभपर रहे वे ब्रह्मा विष्णु महादेव हे श्रेष्ठवित्र तुमारे कल्याण ओर लक्ष्मी के लिये होवो || १ | यह आशीर्वाद सुणके मनमें बहुत खुशी हो वह राजाका पुरोहित विचारणे लगा कि यह कोइ चतुर साधु है, इस अवसर में मंदिरके अंदर ऐकांतमें रहि हुइ वैदिकशाला में ॐ ऋषभं पवित्रं पुरुहूत मध्वरं यज्ञं महेशं इत्यादि वेदपदका परावर्तन दूसरि तरेसें करते हुवे छोकरोंके मुखसें सुके पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा इसतरे वेदपदोंका उच्चारण नहिं करणा पुरोहितनें कहा तो किसतरे उच्चारण करणा चाहिये मुनिनें कहा इस प्रकारसें उच्चारण करणा उचित है ॐ ऋषभं पवित्र पुरुहूत मध्वरं यज्ञं महेशं इत्यादिसंपूर्ण कहा तब यह सुणके आश्चर्यसहित मनवाला वो राजाका पुरोहित कोमलवाणीसें पूछनें लगा कि कोइभि मनुष्य भणेसिवाय वेदपाठकों शुद्ध अथवा अशुद्ध जाण सके नहिं तो वेद भणनें के अनधिकारी एसे आप शूद्र जातिवालोंको इस वेदपाठका घोखणा अशुद्ध है एसा कैसे जाणा तब पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजी बोले के हे महाभाग्यशेखर For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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