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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१७ तपस्या करने लगे, ऐसी कठिन तपस्या करनेसें अंतप्रांत आहार खानेसें, कोई पूर्वकृत कर्मके योगसे सरीरमें 'गलित कोढ, रोग उत्पन्न होगया तथापि धर्मसे चलितचित्त न हुआ शरीरकी शुश्रूषा मात्रभी न करी, जब क्रमसे बहुतरोगवढने लगा, तब श्रीअभयदेवसरिजीकी अणशण करने की इच्छा उत्पन्न भइ, अन्यत्वेवमाहुः-श्रीजिनचंद्रसरिजीके वादमे श्रीमान् अभयदेवसूरिजी नवांगवृत्तिकर्ता युगप्रधान भये, उन्होंकी नवांगवृत्ति करणेमें सामर्थ्य और नीरोगता (याने-रोगरहित) किसतरे भइ, वो स्वरूप लेशमात्र कहे हैं, गुजरात देशमें भगवान् श्रीमान् अभयदेवाचार्य प्रधानचारित्रसमाचारिकी चतुराईमे मुख्य ऐसे परिवारसहित ग्रामनगरआकर वगेरे स्थानोंमे विहार करणेकर महीमंडलकुं पवित्र करते हुवे, संघके आग्रहसें धवलक नगर पधारे, वाद विहार क्रमसे शंभाणक ग्राम पधारे, वहां पर कुछ शरीरमें रोगोत्पत्ति कारण हवा, जैसे जैसे औषध वगेरे करे तैसे तैसे यह दुष्ट रोग विशेष वधे, जराभि उपशम न होवे (याने मिटेनहिं ) अलग अलग ग्रामोंमें रहनेवाले श्रीपूज्यपादभक्त श्रावक जब जब चउदशमें पाक्षिक प्रतिक्रमण होवे है, तव चार योजन प्रमाणे क्षेत्रसें वहां पर आयके पूज्योंके साथ प्रतिक्रमण करे, भगवान श्रीमद्अभयदेवसरिजीभि अपने शरीरकं अत्यंत रोगग्रस्त जाणके (इस वखतमें अपना कार्य परलोकसंबंधि साधना श्रेष्ठ है ऐसा विचार करके मिच्छामिदुक्कडं देने वास्ते विशेष कर तुम सवकों चउदशके रोज इहांपर आना ) इसतरे ज्ञानका उपयोग For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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