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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० कालानुभावसे श्रीमंत लोकसावधानहोके देवतत्वगुरुतत्वकुं मानणेवाले श्रावक उत्कृष्टआदरसे चैत्योंकी संभालकरतेथे सांप्रततो दुषमकालका दोषसे निरंतर कुटुंबकी प्रबलचिंतासंताप से पीडितचित्त होनेसे इदरउदर चलते हुवे प्रायै निखश्रावकोंकों अपणेघरभीवक्त पर आना मुस्किल होता है जिनमंदिरआना तो कहांसे होवे उसका संभालना यहतो कैसेवने और श्रीमंत तो विषय सुखमे लीनभयें राजसेवादिकृत्य में तत्पर रहते जिनमंदिर कादर्शनमि नही करते है संभालकरना कैसे वनशके, जिनमंदिर की संभाल न होनेसे जिन चैत्यका नाशहोवे तीर्थविछेदका संभवहोवे और यति मंदिरमें रहते होवेंतो बहुतकालतक जिनघरवना रहे तीर्थव्यवच्छेद न होवे तीर्थरखणेकेवास्ते किंचित् अपवादभी सेवना आगममें कहा है जो जेणगुणेण हिओ, जेणविणा वा न सिझए जंतु जो जिस गुणसे अधिक होवे जिसविना जो सिद्धकार्य न होवे तब अपवाद सेवे इत्यादि सूक्ष्म दृष्टिसे विचारणेसै विद्वानोंके चिचमे इस कालमें मुनियोकुं मंदिरमें रहनाठीकमालुम होता है यह सूराचार्य ने कहा. पूर्वपक्ष समस्त हृदयमें धारके उत्कटवादीपंडितरूपहाथीयों में मृगेंद्रसदृश श्रीजिनेश्वरसूरि बोले अहो सभासदो ! निरंतर सर्वत्र निर्मलहृदयसे युक्तायुक्तविचार विषय बुद्धि पूर्वक कार्यकरणेवालेलोको ! मात्सर्यछोडके मध्यस्थता धारके सावधान होके सुनो. पूर्वपक्षिने जिनभवनमे रहना इसवक्तके मुनियोंकुं उचित है निरपवादब्रह्मचर्यव्रतका संभव For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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