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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ मनोहर देरासर श्रावकोंने बनाया, वादमें श्रीमान् अभयदेव सूरिजीनें स्थापना करी, बादमें श्रीमद् अभयदेवसरिजी स्थापित वह श्रीमान् स्तंभनक पुरमे रहे हुवे, श्रीस्तंभन पार्श्वनाथ स्वामि सर्वलोकोंका वांछित पूरण करणेसे स्तंभनतीर्थ ऐसा करके सर्वठिकाणे प्रसिद्धिको प्राप्त हुवे. वादमें आचार्यश्रीभि वहाँसे विहार कर अणहिल्लपुर पाटण पधारे, वहां पाटणमे श्रीजिनेश्वरसूरिजी स्थापित वसतिमे रहे, उस वसतिमे रहेतां थकां आचार्यश्रीने, स्थानांग, समवायांग, विवाहपन्नत्ती, वगेरे नवअंगोकी वृत्तियों करणी सरु करी, उन वृत्तियांके करणेमे जहां कहांभी संशय उत्पन्न होवे, उस ठिकाणे सरण करणेसें जया विजया जयंति अपराजिता नामक देवता स्मरण करणेके साथहि महाविदेह क्षेत्रमे तीर्थकरके पास जाके संशय पदका अर्थ पूछके सत्य अर्थ आचार्यश्रीकों कहै. उस समय वहां पाटणमे चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य नामके रहतेथे उणुनेंभि सिद्धांतोंका व्याख्यान करणा सरुकरा, सर्व चैत्यवासी आचार्य पुस्तक लेकर सुणनेकों आते हैं और आचार्यश्रीभि वहांपर व्याख्यान श्रवण करणेकों जातें है यतः स्वयं विदंतोऽपि हि सम्यगर्थ, सिद्धांततकोदिकशास्त्रवाचां । शृण्वंति गत्वालघवोऽन्यतोपि, निमत्सरा एव गुणेषु संतः॥१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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