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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ रिजी अणहिलपुरपाटणमें आये, उस समय चैत्यवासस्थिति मे रहे हुए श्री उप केशगच्छीय संप्रदाय मे श्रीसूराचार्य प्रमुख ८४ चैत्यवासी आचार्योंके साथ श्रीपंचासरीय चैलसभा में श्रीदुर्लभराजा समक्ष शास्त्रार्थ हूवा था तिस शास्त्रार्थमें श्रीजीनेश्वरसूरिजीका पक्ष सत्य होणेसे, श्रीदुर्लभराजानें श्रीजिनेश्वरसूरिजीकों खरतर करके कहै, और वादी पक्ष श्रीसूराचार्यवगेरेकों नर्म होणेसें श्रीदुर्लराजानें कवलाकरके कहै, और कहाभी है, कि जीत्या सो खरतर हुवा, हाखा सो कवला जाणिया, तिणसमे जैनसंघमें, गच्छ दोय वखाणिया, १॥ वादमे श्रीअभयदेवसूरिजी हूवे उनोंने श्रीस्तंभणपार्श्वनाथजी की प्रतिमा प्रगटकरके नवांग वगेरेकीवृत्तियांरची उस समय श्रीसूराचार्य शिष्य पंडित शिरोमणि सर्वचैत्यवासीयों में मुख्य श्रीद्रोणाचार्य हूवे, उणोनें श्री अभयदेवसूरिजीकृत सर्ववृत्तियां शोधि है और वाद क्रमक्रमसे कितनेक चैत्यवास छोडकर वसतिवासी हूवे, और खगच्छमें (कवलाग ० ) बहुत कालसें साधुधर्मविच्छेद होणेसे किसीनें किया उद्धार नहिं किया और क्रियोद्धार नहिं करसके तथाविध आगमानुरोधसें और परिग्रहधारि श्रीपूजपणेमेहि अपणी परम्परा चलाते रहै, सो अबिभी कमलागच्छमे परिग्रह धारी आचार्य यानें श्रीपूजयतिवगेरे विद्यमान है, परन्तु साधु-साध्वी प्रायें नहिं है, और इनोंका विशेष समुदाय भी फलोधि और बीकानेर में मौजूद है, और इनोंका श्रीपूजभी वीकानेर वगेरहमेहि रहेते थे, यह प्राचीनगच्छ संप्रदाय है, और यह उपकेशगच्छ वा कावलागच्छ, इस नामसे प्रसिद्ध है, और इस संप्रदायका करिमीसें खरतरगच्छवालोंके सह प्रशस्त मैत्री भावादि चला आवे है यह बात गुरुगमसंप्रदाय होवे सो जाणते हैं, और पहिला सामायक पीछे इरिया वही, श्रीवीरषट्रकल्याणकादि प्ररूपणा सर्व प्रायें खरतरगच्छके समानहि मानतें हैं, और यह बडी बडी बातें लिखकर कवले - गच्छका संक्षिप्त स्वरूप कहा है, और विशेष श्रीउपकेशगच्छ सविस्तर पट्टावली तथा खरतरगच्छ पट्टावलीसें गुरुगमाम्नायसें जाणना, और ८४ सी गच्छवाले एक गुरुके शिष्य है, सबकी सदृश समाचारी है विशेष मेद नहीं है और प्ररूपणा समाचारी प्राचीन शास्त्रानुसारतो एकहि मालूम होवे है, इसलिये प्रायें विरोध वगेरेका कारण कोइ नहिं मालूम होवे है, और श्रीरत्नप्रभ सूरिजी और श्रीजिनवल्लभसूरिजी और श्रीजिनदत्तसूरिजी इन ३ आचार्योकाहि जैनकोमपर वा ८४ सी गच्छवालोंपर विशेष उपकार किया हुवा मालूम होवे है, इत्यलं विस्तरेण किंच बहु वक्तव्यमस्त्यत्र तत्तु नोच्यते, अभे यथावसरं विस्तारयिष्यामः. For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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