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३३३ दीसइय वीयराओ, तिलोयनाओ विरायसहिएहिं । सेविजंतो संतो, हरई तु संसार संतावं ॥ १०७॥
अर्थः-और देखनेमें आता है वीतराग तीनलोकके नाथ जो है सो वैराग्यसहित भव्योंसे सेव्यमान भए ऐसे संसाररूप संतापको हरे है ॥ १०७ ॥
वाइय मुपगीयं नमपि, सुयं दिढ चिट्ठमुत्तिकरं । कीरइ सुसावएहिं, सपरहियं समुचियं जुत्तं ॥१०८॥
अर्थः-वादित्रका बजाना और गाना और नाटकभी सुना देखा इष्ट मुक्तिका करनेवाला सुश्रावक स्वपरहित इकट्ठे होके करे है वह युक्त है ॥ १०८॥
रागोरगोवि नासइ, सोउं सुगुरुवदेस मंत पए। भवमणो सालुरं नासई दोसो वि जत्थाहि ॥ १०९॥ अर्थः-रागसर्पभी सुगुरुका उपदेशरूप मंत्र पद सुनके भग जाता है भव्यमनरूप दर्दुरको जहां दोषरूप सर्प नहीं खाता है ॥१०९॥ नो जत्थुस्सुत्त जणकमोत्थि, पहाणं वलि पइहा य । जइ जुवइपवेसोवि अ, न विजए विजए विमुक्को ॥११० अर्थः-जहां उत्सूत्र लोगोंका क्रम नहीं है मात्र, वलि, प्रतिष्ठा और यतिः युवतिका प्रवेशभी रात्रिमें है नही वहां मुक्ति विद्यमान है ॥ ११०॥ जिणजत्ताण्हाणाई, दोसाणं य ख्कयायकीरेति । दोसोदयंमि कह तेसिं, संभवो भवहरो होजा ॥१११॥
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