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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ सुणना यह नही करणा स्त्रीयोंभी साधुवोंकों हरवक्त नही देखे स्त्री रहित स्थानमे रहणा जाणो ॥१॥ स्त्रीसाथरहणेसे ब्रह्मव्रतकी अगुप्ति लजाका नाश प्रीतिकी वृद्धि साधुके तपरूप धनका नाश धर्मसे दूर होणा तीर्थकी हानि इत्यादि दोष होते है ॥२॥ इसलिये वसति वास यतिकुं युक्त नहीं है लोकमेभी कहते हैं “शृणु हृदयरहस्यं यत्प्रशस्यं मुनीनां, न खलु योषित्सन्निधिः संविधेयः॥ हरति हि हरिणाक्षीक्षिप्तमक्षिक्षुरप । प्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नतानाम्" ॥१॥ मुनियोंके हृदयका रहस्स प्रशंसनीय सुनो स्वीकी सोबत नही करणी स्त्रीयोंका डालाहुवा नेत्ररूपशस्त्रोंसे शमतनुत्राणरूप चित्त वृद्धमुनियोंका हरति हे १ जिन मंदिरमे रहणेसै सदा स्त्रीयोंका संभव नहि होता हैं कदाचित् चैत्यवंदनके लिये क्षणमात्र आणे जाणे वालीयोंके साथ वैसाप्रसंग नहीं प्राप्त होता है इसलिये प्राणातिपातादिकके जैसा अनेक दोष दुष्ट होनेसे परघरमे रहना ठीकनही होनेसे मंदिरमे रहनाहि इसवक्तके मुनिजनोकुं संगत है, वहहि कहते है, इस वक्तके मुनियोंकुं जिनमंदिरमें निवासबिनाउद्यानमे रहना या परघरमें निवास करना यह दो विकल्पमें द्वितीय विकल्प तो दासी पुत्रवत् नहीवनता है कारण परघरमें स्त्री संसर्ग हरवक्त रहता है प्रथम उद्यानपक्ष तो सपक्ष सदृश हमारे पक्षकुं नहीहठाता है स्त्रीपरिचयादि और आधाकर्मादि दोष For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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