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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४१ भावार्थ-जिणोंकामहिमा प्राकृतयानेअल्पबुद्धिवाले मनुष्योंसें नहिं प्रमाण होसके ऐसेआचार्य प्रत्येकठिकाणेहे, और उनआचायाँके श्रेष्ठआचारकरके यहजगतपवित्र है, परन्तु वर्तमानकालमें जेबुद्धिरूपधनवाले, याने बुद्धिमानआचार्य जगतमें है, उणोंके अंदरसे कोइभी ऐसा आचार्यहै के जो एकभी गुणकरके श्रीअभयदेवस्वरिजीके सदृशहोवे, कदाचित् कोइ आचार्य होवे तो मेरेको जरूरदेखावोगा" यह पूर्वोक्त श्लोक वाचकर वादमें सर्वचैत्यवासीआचार्यशान्तहूवे, और श्रीमद् अभयदेवसरिजीके सन्मुख श्रीद्रोणाचार्यजीने इसतरे कहाकि "जो सिद्धान्तवगैरेकीटीका आपवणाओगा, उणसर्वटीकाओंको में शोधुंगा, और लिखुंगा" और अणहिलपुरपाटणमें रहेतां पूज्यश्रीने दोय गृहस्थोंकों प्रतिबोधकर सम्यक्तसहितवारेव्रतधारि करेथे, वेदोनुं श्रावक समाधिसे श्रावकपणा पालकर, देवलोक गये, देवलोकसें वह दो-देव श्रीतीर्थकरकों वन्दना करणेके लिये महाविदेहक्षेत्रमें गये, श्रीसीमंधरस्वामि श्रीयुगंधरवामिकों नमस्कारकरा, धर्म सुणकर उण दोनुं देवोंने भगवानकों पूछाकि हमारा धर्माचार्य धर्मगुरु श्रीअभयदेवमूरिजी कितनेभवमें मोक्षजावेगा, तब अर्हतभगवाननें कहा, तीसरे भवमें तुमारा धर्माचार्य मोक्षजावेगा, यहसुणकर हरखसें जिणोका शरीर विकस्वरमान हूवा, और जिणोकी रोमराजि विकसितहूइ, ऐसे वह दोनुं देव अपणे धर्मगुरूजीके पासमे गये, तीर्थंकरकों वांदणेका स्वरूप कहा वादमें वंदना करके जातां उणदेवोने आगाथा कही, यथा भणि तित्थयरेहि, महाविदेहे भवंमि तइयंमि, तुह्माण चेव गुरुणो, मुक्खेसिग्धंगमिस्ससि ॥१॥ १६ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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