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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० करणेवाले न होवें, याचना करणेवाले पुरुषोंकी याचनाका भंग करणेवाले न होवे ॥१॥ . वादमें द्रोणाचार्य अपणे मनमें विचारणे लगे कि, अहो इति आश्चर्ये कोणपुरुष रत्नप्राप्त होकर,. रत्नग्रहणकरणेमें मंदआदरवाला होवे, अपि तु कोइभी मंदआदरवाला न होवे, ऐसा विचारके द्रोणाचार्य श्रीअभयदेवसरिजीका गुणवर्णन करै आचार्यश्रीके प्रति बहुमान करणेमें तत्पर हुवे, वाद जब जब आचार्यश्री आवे जावे, तव तब द्रोणाचार्य खडे होवे, सामने आवे, कुछ दूरतक पोहचाने जावे, वादमे वेसा सुविहित आचार्य विषयि आदर करता हुवा देखके, और चैत्यवासी आचार्य वगेरह नाराजहोके सर्व उठकर खडे भये, और अपने अपने मठमें चैत्यवासी आचार्योंने प्रवेश करा. और बहुतहि बोलने लगे, जैसे कि, अहो यह किस गुण करके हमारेसे अधिक है, जिस गुणकर हमलोकोंमे मुख्यभी ये द्रोणाचार्य श्रीअभयदेवाचार्यका इसप्रकारका आदरसत्कार बहुमान करते हैं, पीछे हमलोक कैसे होवेगें, अर्थात् हमारी कैसी दशा होवेगी, इत्यादि वादमें द्रोणाचार्य वह पूर्वोक्त वचन अपणे समुदायवाले आचार्य वगेरोंका सुणकर, विशेषज्ञ गुणोंका पक्षपात करणेवाले द्रोणाचार्यने नवीन श्लोक वणाके सर्व चैत्यवासी आचार्योंके मठोंमें भेजा, वह श्लोक यह है, आचार्याः प्रतिसद्म संति महिमा येषामपि प्राकृतमातुं नाध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत्, । एकेनापि गुणेन किंतु जगति प्रज्ञाधनाः सांप्रतं, योऽधत्ताऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् १ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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