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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४१ अर्थः-समुद्रके जलका जो अंजलिसे प्रमाण करे आकाशको पगोंसे उल्लंघे वहभी जिन्होंके गुणके समूहको कहनेको समर्थ नहीं होवे ॥ १४२॥ जुगपवर गुरु जिणेसर, सीसाणं अभयदेव सूरीणं । तित्थभर धरण धवलाण, मंतिए जिणमयं विमयं १४३ अर्थः-युगप्रधानगुरु श्रीजिनेश्वरसरिके शिष्य अभयदेवसरि तीर्थभार धारणमें धौरेय समान उन्होंके पासमें जैन आगमविशेष करके जाना ॥ १४३ ॥ सविणय मिह जेण सुअं, सप्पणयं तेहिं जस्स परि कहियं । कहियाणुसारओ सवं, समुवगयं सुमणा सम्मं ॥१४४॥ अर्थः-विनयसहित इहां उन्होंने जिसको स्नेहसहित श्रुत कहा कथित अनुसार जिस सद्बुद्धिवालेने सुना और जाना प्राप्त किया ऐसा ॥ १४४ ॥ निच्छम्मं भवाणं, तं पुरओ पयडियं पयत्तेण । . अकय सुकयंगिदुल्लहजिण वल्लह सूरिणा जेण॥१४५॥ अर्थः-कपटरहित भव्योंके आगे वह सिद्धान्त प्रयत्नसे प्रगट किया, नहीं किया सुकृत ऐसे प्राणियोंको दुर्लभ ऐसे जिनवल्लभमरिने ॥ १४५ ॥ सो मह सुह विहिसद्धम्म दायगो तित्थनायगो अ गुरू । तप्पयपउमं पाविय, जाओ जायाणुजाओहं ॥ १४६॥ अर्थः-वह मेरेको शुभ विधिः सद्धर्मका देनेवाला तीर्थसंघका For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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