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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४२ नायकगुरु धर्माचार्य उन्होंके चरणकमलको पार्क मैं गीतार्थोका अनुसरण करनेवाला भया ।। १४६ ॥ तमणुदिणं दिष्णगुणं, वंदे जिणवल्लहं पहुं प्पयओ । सूरिजिणेसरसीसोअ वायगो धम्मदेवो जो ॥ १४७ ॥ अर्थः- दिया है ज्ञानादि गुण जिन्होंने ऐसे जिनवल्लभसूरि प्रभुको निरंतर प्रयत्नसे नमस्कार करें और श्रीजिनेश्वररिके शिष्य वाचक धर्मदेव गणि और ॥ १४७ ॥ सूरीअसोगचंद्दो, हरिसींहो सङ्घदेवगणिष्यवरो । सवेवि तविणेया, तेसिं सबेसिं सीसोहं ॥ १४८ ॥ अर्थः- अशोकचन्द्रसूरि हरिसिंहसूर और सर्वदेवगणप्रवर सर्व जिनेश्वरसूरिके शिष्य धर्मदेवगणिके शिष्य उन सर्वोका मैं शिष्य हूं ।। १४८ ॥ ते मह स परमोवयारिणो वंदनारिहागुरुणो । कयसिवसुहसंपाता, तेसिं पाए सया वंदे ॥ १४९ ॥ अर्थ : - वह मेरे सर्व परम उपगारी नमस्कार करने योग्य गुरु आराध्य हैं किया है शिवसुख संपात जिन्होंने ऐसे उन्होंके चरणों में मैं निरंतर नमस्कार करूं ॥ १४९ ॥ जिणदत्तगणि गुणसयं, सपण्णयं सोमचंदबिंबं व । भवेहिं भणिज्जंतं, भवरविसंताव मवहरउ ॥ १५० ॥ अर्थः- जिनदत्तगणि गणधर उन्होंके गुणग्रहणरूप डेढ़ सौ (१५०) गाथाका यह प्रकरण पौर्णमासीके चंद्रबिंबके जैसा शीतल स्वभाववाला भव्यों करके पठ्यमान नाम पढ़ते गुणते सुनते भव For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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