________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२३६
श्रावकोने आचार्यश्रीके वास्ते डोली करी, तिस डोलीके अंदर आचार्यश्री बेठे, और यात्राकेवास्ते स्तंभनकपुर प्रति वहांसें चले, वादमें आचार्यश्रीकी अनाजपर रुचि भइ, प्रथम आचार्यश्रीकों भूख बिलकुल नहिथी, परन्तु स्तंभनकपुर प्रति प्रयाण करनेपर, पहिले प्रयाणे हि रस विषयि इच्छा उत्पन्न भइ, क्रमसें जितने धोलके पहुंचे उतनें आचार्यश्रीके शरीरमें विशेष समाधि भइ, वाद प्यादलहि विहार कर आचार्यश्री स्तंभनकपुर पधारे, वादमें जितने श्रावक लोक श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी प्रतिमाजीके तलासमें लगे, उतने वा प्रतिमा कहांभि नहिं देखनेमें आइ, वादमें श्रावकोंने आचार्यश्रीकों पूछा, तब आचार्यश्रीनें कहा, कि खाखरेके अंदर तुमलोक देखो, वादमें श्रावकोने सेढी नदीके किनारेपर पलाशवृक्षोंके अंदरतलासकरणेसें देदीप्यमान श्रीपावनाथ स्वामिकी प्रतिमा देखनेमें आइ, और उस प्रतिमाके ऊपर निरंतर स्नात्रके लिये एक गाय वहांपर आके दूधकुं झारतिथी, वादमें हरपित हुवे ऐसे श्रावकोंने आयके आचार्य श्रीकों कहा, हे भगवन् आपके कहे हुवे प्रदेशमें प्रतिमा देखनेमें आइ हे, यह वचन श्रवण कर वादमें भक्तिपूर्वक आचार्यश्री वंदना करनेके लिये जहांपर प्रतिमा देखनेमे आइ वहांपर पधारे, और वहांपर खडे खडेहि मस्तक नमायकर नमस्कार करा, और नमस्कार करके वादमें देवप्रभावसे ।। जयतिहु अणवरकप्परुक्ख, जयजिणधनंतरि, जयतिहुअणकल्लाणकोस, दुरिअकरिकेसरि, तिहुअणजणअविलंधियाण, भुवणत्तयसामिअ, कुणसु सुहाई जिणेसपास, थंभणयपुर ठिअ ॥१॥
For Private And Personal Use Only