SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ स्त्री, पुरुषोंने, देशविरति श्रावक धर्म अंगीकार करा (इस तरह) साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ स्थापित करा । आगे कितनेकवरसोसें विछेद हुवा थका, इहांसें फिर, साधु श्रावक धर्म प्रवर्तन हुवा (इस समयमें) परिव्राजक सांख्य मत. वालूकी उत्पत्ति भई ॥ अव सांख्यमतका खरूप लिखते हैं। भरतजीके ५०० पुत्रोंने दीक्षा लीथी (उसमे) एकको नाम मरीची था (सो) साधुपना पालना महाकठिन देखकै, नवीन मन कल्पित वेष धारन करा (क्यूं कि) पीछा गृहवास करनेमें तो, अपनी हीनता जानके, आजीविका चलानेके लिये मत स्थापित कीया । इस रीतिसें अपना व्यवहार बनाया (कि) साधु तो, मनदंड, वचनदंड कायदंड, इन तीनों दंडोसे रहित है (और) में तो इन तीनों दंडो करके संयुक्त हुं। इसवास्ते मुजकों त्रिदंड रखना चा हिये (दूसरा ) साधू तो द्रव्य अरु भाव करके मुंडित है । सो लोच कर्ते है (अरु) में तो द्रव्य मुंडित हुं (इसवास्ते) मुझे उस्तरे पाछ नेसे मस्तक मुंडवाना चाहिये । शिखामी रखनी चाहियै (तीसरा) साधु तो पंचमहा व्रत पालते हैं (अरु) मेरे तो सदा स्थूल जीव की हिंसाका त्याग रहो ॥ (चौथा) साधु तो निःकंचन है ( अर्थात् ) परिग्रह रहित है । अरु मुझकों एक पवित्रिकादि रखनी चाहिये । (पांचमा) साधु तो शीलसें सुगंधित है । अरुमें ऐसा नहीं हुं (इसवास्ते मुझे चंदनादि सुंगधि लेनी ठीक है (छठा) साधु तो मोह रहित है ( अरु ) में मोह संयुक्त हुँ । इसवास्ते मुझे For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy