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क्षदेखनेपर भी प्रणायानेअभाव नहिं करके शुद्धभावपूर्वक विधिसहित मुनिवेषमें रहे हुवे श्रीजगचंद्रसूरिजीकों वंदनापूर्वक पञ्चक्खाण वगेरे करके गया और अपर्णेकार्य में लगा वाद जातिकुलादिसंपन्न आचार्य के मनमें अत्यंतलञ्जा अनुचितकार्यका महान् प्रश्चात्ताप - पूर्वक तीव्रसंवेग उत्पन्न होनेसें यह विचार किया हाइतिखेदे इस अनुचित मेरे कर्त्तव्यको धिग हो अहो इति आश्चर्ये गुणहीन साध्वाचाररहितकेवलवेषयुक्त मेरेकुं यह महर्द्धिकशुद्धश्रावकवस्तुपालमंत्री निःशंकपणें भावपूर्वक वंदना करके स्वस्थानगया और कुछकहा नहिं अहो यह मुनिवेषधर्मका हि प्रभाव है इत्यादिशुभभावना भावतां दृढसंवेगपूर्वक क्रियोद्धारविधिसें सर्वपरिग्रहका उसी वक्त त्याग करके सुविहितमुनिमार्ग अंगीकार किया अप्रतिबंध विहार करते हुवे तीर्थयात्रानिमित्त गिरनारगये वहां तीव्रतपसंयमादिकरते रहे हैं तिसअवसरमें वहांपर यात्रा निमित्त वस्तुपाल मंत्री भी स्वपरिवारसहित आया तब वहां उग्रतप करते हुवे देखके शुद्ध मुनि जाण के खपरिवारसहित भावसे विधिपूर्वक वंदना करके आगे बेठे मुनि धर्मोपदेश देकर निवृत्तहूवे, वाद विनयसहित वस्तुपालने पूछा कि आपश्रीके गुरु कोण है और उनका क्या नाम है तब श्रीजगचंद्राचार्य बोले कि हेधर्मप्रिय श्रावक मेरा गुरुका नाम श्रीवस्तुपाल मंत्री है, यह सुणते हि मंत्री चमकके बोलाकि यह अनुचित क्या फरमातें हैं, आपश्री मुनिराज हैं औरमें तो आपका श्रावक हूं दाश हुं आपश्रीतो मेरे गुरु हैं और पूजनीक हैं वंदनीक हैं, में आपका गुरु कैसा, तब आचार्य बोले की
२० दत्तसूरि०
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