SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६५ करी तब श्रीगुरुमहाराज योग उपधान बहायके सर्वसिद्धांत पढाए, अनुक्रमसें योग्य जाणके आचार्यपद दीया तिसके अनंतर श्रीवर्धमानसूरिजीको यह विचारणा उत्पन्न हुई जो यह सूरिमंत्र हैं इसका अधिष्ठायक कोन है यह जाननेवास्ते तीन उपवास कीये उतने तीसरे उपवासमें धरणेंद्र आया उस धरणेंद्रने कहाकि इस सूरिमंत्रका अधिष्ठायक में हूं सर्व मूरिमंत्रके पदोंका अलगअलग फल कहा तिसके वाद विशेष प्रभावसहित वह मूरिमंत्र फुरणे लगा अर्थात् अपना प्रभाव विशेषकर देखानेवाला हूवा शुद्ध होनेसें ॥ तिस सरिमंत्रके सरणसे विशेष तेजप्रताप परिवारसहित श्रीवर्द्धमानसूरिजी हूवे वाद गच्छलाभादि जाणके उत्तराखंडके विषे विहार करनेंको आज्ञा दीवी, तब श्रीवर्द्धमानसूरि श्रीउद्योतनसूरिजीकी आज्ञा पायके उत्तराखंडमें विहार करने लगे, और श्रीउद्योतनसू रिजीमहाराज ८३ तयांसी साधुवोंका शिष्यादिकके साथ विहार करता थका मालवदेशका संघके साथ श्रीसिद्धगिरितीर्थकी यात्रा करनेको आये ॥ सिद्धाचल ऊपर श्रीऋषभादि सर्व चैत्यगत बिंबोंको वंदन करके पिछाडी पाजसें उतरके सिद्धवड नीचे रात्रिको रहे, तब उहां आधी रात्रिके समय गाडेका आकार ऐसा रोहिणी नक्षत्रमें बृहस्पतिका प्रवेश देखके गुरुमहाराज कहनें लगे, कि यह समय ऐसा उत्तम है जिसके मस्तकपर हाथ रखकै सो बडा प्रतापीकहोवै, तब ८३ तयांशी शिष्य बोले कि हमारे मस्तकपर वास चूर्ण करो, हम सब आपसें पढे हैं, इससे आपकेहीशिष्य हैं तब आचार्यजीनें कहा कि वासचूर्ण लावो, तब शिष्य उतावलसें For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy