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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४५ वहां जो श्रावकोंके लडके हैं वे सर्वहि उस आचार्यके मठमें भणतें हैं, वहां सर्व विद्यार्थीयोंमें जिनवल्लभ नामका श्रावकका लडका है, उसका पिता परलोक गयाहै, उस लडकेकों उसकी माता निरन्तर सुखसें पालती है, यह लडका जब पडने योग्यभया तब उसकी माताने जिनेश्वराचार्यके मठमें पढणेके लिये भेजा, सर्व विद्यार्थीयोंसें अधिक पाठ उस जिनवल्लभको याद होवे, अब कोइ एक दिनके समय नगरके बाहिर शौचादिकके निमित्त जातां, उस जिनवल्लभको एक टीपना मिला उसटीपनेमें दो विद्या लिखि भई है, एक तो सर्पआकर्षणी दूसरी सर्पमोचनी, वादमें दोनों विद्याको कंठ करके, जितने पहिली विद्याको अजमाणेके लिये पढि, उतने फणोंके समूहसें भयंकर फूत्कार करते हूवे अत्यंतचपलमुखसें वाहिर निकाली दो जिहा जिनोंनें चलते हूवे लालनेत्र जिनोंके ऐसे दशदिशाओंसें विद्याके प्रभावसे खेंचे हवे आते हुवे बडे बडे सप्पोकों देखे, निर्भय मनवाला उस जिनवल्लभने अपने मनमे विचारकराकि निश्चयआविद्या प्रभावसहित है, ऐसा विचारके, फेर दूसरी विद्याका उच्चारणकरा, उस दूसरी विद्याके प्रभावकर सर्व सर्प पीछा अपना मुखफोरके जाने लगे, यह सर्ववृत्तांत सहरमेरहेहूवे जिनेश्वराचार्य- सुणा, अपणे मनमे जाणा और निचयकरा कि यह लडका सात्विकहै विशेष पुण्यवान है यह गुणपात्र है इस लिये अपने बसमें करणा युक्त है इसतरे विचारके बादमें दास खज्जूर घेवर मालपूआ मखाणा लाडु वगेरे अनेक सारपदार्थ देनेपूर्वक आचार्यनें उस जिनवल्लभकुं अपने वशकरके बादमें उस जिनवल्लभकी माताकों For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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