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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३.२८. जिन्होंने ऐसे मेरे प्रभुः जिनवल्लभगणिको आचार्यपद दिया ॥ ८४ ॥ अत्थगिरि मुवगएसिं, जिणजुगपवरागमेसु कालवसा । सूरमिष दिट्ठिहरेण विलसियं मोह संतमया ॥ ८५ ॥ अर्थ :- जिनयुगप्रवरागम कालवशसे सूर्य के जैसा अस्त होगया agat हरनेवाला मोह अंधकार फैला ऐसे ॥ ८५ ॥ संसारचारगाओ, निवण्णेहिं पि भव जीवेहिं । इच्छतेहिमवि मुक्खं, दीसह मुक्खारिहो न पहो ॥ ८६ अर्थः - संसारबन्दीखानेसे निर्वेदपाए भव्यजीव मोक्षमार्गकी इच्छा कर्ते हुओं को मोक्षमार्ग देखने में नहीं आता है ॥ ८६ ॥ फुरियं नक्खत्तेहिं महा गहेहिं तओ समुल्लसियं । बुट्टीरयणि परेण वि, पाविआ पत्तवसरेण ॥ ८७ ॥ अर्थ:-नक्षत्र स्फुरित हुआ महाग्रह उल्लसित भया इस अवसर में रजनी करनेभी वृद्धिः पाई ऐसा ॥ ८७ ॥ पासत्यकोसिअकुलं, पयडीहोऊण हंतु मारद्धं । काएका विधाए भावि भयं जंण तं गणइ ॥ ८८ ॥ अर्थ :- पात्थ रूप चैत्यवासी कौसिककुल प्रत्यक्ष होके हनना प्रारंभ किया छकायरूप काकोंके विघातमें भावीभय नहीं गिने ऐसे ॥ ८८ ॥ जाग्गंति जणा धोवा, सपरेहिं निव्वुद्धं समिच्छता । परमात्थ रक्खणत्थं सद्दं सहस्स मेलंता ॥ ८९ ॥ अर्थ :- अपने और परके सुखकीइच्छा करतेभए लोग थोड़े For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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