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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७१ यह सर्वत्र प्रसिद्धि भइ, अहो जो यह श्वेताम्बराचार्यहै सातिशायि विशेषज्ञानी होवेहै, बहुरता वसुंधराहै इति । और कोइ एकदिनके समय कभी वडगच्छीयश्रीमुनिचंद्रसूरिजीनें सिद्धान्तोंकी वाचना ग्रहण करणेके लिये, दो शिष्योंको वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीके पासमें भेजे, वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीभि श्रीमुनिचंद्रसूरिसंबंधि उन दोनों शिष्योंको संप्रदायगत सिद्धान्तोंकी प्रीतिपूर्वक वाचना देनी सरुकरी, और उन दोनों शिष्योंनेभि अपणे मनमें अशुभ चिंतवतां, यह विचार किया, कि जो वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिके श्रावकोंकुं कीसी प्रकारसें अपणे ठगें, अर्थात् इणके ऊपरसें श्रद्धाहटाकर अपणें गुरुमहाराजके रागि बनाकर वादमें अपणे आचार्यश्रीमुनिचंद्रमूरिजीके परम भक्त श्रावक करें, तो अच्छा होवे, ऐसी बुद्धि करके श्रीजिनवल्लभगणिजीके भक्तश्रावकोंकू रंजितकरतेभये, और कभी अपणे गुरुके पासमे प्रच्छन्नवृत्तिसें भेजनेके लिये छाना लेख लिखा, उन दोनों शिष्योंनें, उस लेखकुं वाचनासंबंधिकाफीमे डालके वाचना ग्रहणकरणेंके लिये, वह दोनों शिष्य वसतिमें श्रीजिनवल्लभगणिजी वाचनाचार्यके पासमे आये, वह दोनों शिष्य वंदनाकरके, बैठे, जितने वाचनेका पुस्तकखोला उतने नवीन लेख लिखा हुवा देखा, गुणविशिष्टमें मिश्र शब्द है, जिनवल्लभगणि मिश्रनें उस लेखकुं ग्रहण किया, और उस लेखकुं खोला वे दोनों शिष्यभी वाचनार्यजीके हाथसे पीछा लेख लेनेकुं नहिं समर्थ हुवे, उतने उस लेखकों वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीनें, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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