SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२७ माननीय है, और तिन ८४ सीयोंकी समाचारी, कथंचित् एकहि है, एक गुरुके थापे भये हैं प्ररूपणाभी प्रायें एक समानही है, और इस समय (८४) चौरासी गच्छोंमेसें बहुत गच्छ तो विच्छेद होगये है, प्रायें २-४ गच्छ संप्रदाय शेष रहि संभवे. है, ऐसा प्राचीन जैनसंप्रदायिक इतिहाससे मालूम होवे है, फेर विशेष तो श्रीज्ञानिमहाराज जाणे, श्रीवर्धमानसूरिजीकी संप्रदायवाले, और श्रीसर्वदेवसूरिजीकी संप्रदायवाले और चित्रवाल गच्छीय तपाविरुदधारक श्रीजगचंद्रसूरिजीकी संप्रदायवाले, ओसीयां नगरी प्रतिबोधक श्रीरत्नप्रभसूरिजीकी संप्रदायवाले, चोथकी संवच्छरी षडावश्यकादि समाचारी प्रायें समानहि करते हैं इन संप्रदायोंमे होनेवाले महापुरुषोंकी करीहुई प्ररूपणाभी शुद्ध है, येही संप्रदाय प्रायें प्राचीन हैं __ और श्रीवर्धमानसूरिजी ८४ सी शिष्योंमे बडे थे, और मुख्य थे, विणोनें छमास निरंतर आचाम्ल (आंबिल) किया, और पक्षातरमे, श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायककों जाणनेके लिये, क्रमागत श्रीसूरिमंत्र श्रीउद्योतनसूरिजीके मुखसे प्राप्त होकर, वादमे श्रीदेवगुरुआराधनरूप अष्टम तप किया, तिसमें श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायक श्रीनागराजधरणेन्द्र आया, और कहा कि हे भगवन् मेरेकों किसवास्ते याद किया, श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायक में हूं, कार्य होयसो कहो, तब आचार्यश्रीजी बोले कि, इस श्रीसूरिमंत्रका चौसठ देवता हैं, उणों का स्मरण करणेसें, किसीनेभी दर्शन ना , इसका क्या कारण है, तब धरणेन्द्रनें कहा कि, आपके सूरिमंत्र में एक र कम है, इसलिये अशुद्ध होणेसे अशुभभावसें देवता दर्शन नहिं देवेनी तुमारे तपके प्रभावसें आया हूं, तब आचार्यश्रीनें कहा कि, तें प्रथम त्र शुद्धकर, फेर दूसरा कार्य यथावसर कहूंगा, तब धरणेन्द्रने कहा कि, शक्ति नहिं है, तीर्थकर सिवाय शुद्ध होवे नहिं, तब आचार्य श्री. ने सूरिमंत्रक डब्बा धरणेन्द्रकुं दिया, तब धरणेन्द्रनें महाविदेहक्षेत्रमें श्रीसीमंधर. खामीकों जाके दिया, और श्रीसीमंधरस्वामीनेभी तब सूरिमंत्रकों शुद्धकरके धरणेन्द्रकों दिया, धरणेन्द्रनें पीछा लाकर श्रीवर्धमानसूरिजीकों दिया, वादमें तीनवार उस शुद्ध सूरिमंत्रका स्मरण किया, वादमें सप्रभाव वह सूरिमंत्र हूवा, बहुतहि जादा फुरणे लगा, बादमे उस सूरिमंत्रके सर्व अधिष्ठायक देवताओंने दर्शन दिया, तब उन देवताओंसें कहा कि, विमलदंडनायक हमको पुछे है कि, आबुगिरि शिखरपर, जिनप्रतिमारूप तीर्थ है, वा नहिं, इत्यादि अधिकारआबुप्रबंधमे है, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy