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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ द्वेषधारके असत् दोषारोपण कियाहै, इत्यादि अनेक शास्त्रबाह्य अशुद्ध प्ररूपणा मनोमति धर्मसागरने करी है, इत्यादि कारणोंसें संवत् १६ सेमें निन्हव धर्मसागर मतावलंबियोंसें आधुनिक तपोटमतकी पुष्टी हुई, और इस समे उनोंकी बहुतहि प्रबलता है, इसवास्तेहि पूर्वोक अशुद्ध प्ररूपणा करते हैं, उपदेशन के करवाते हैं, ॥ अब इहांपर प्रत्युत्तरमें बहुत हि वेचनीय है, बहुत शास्त्रोंकी शाख है परन्तु इहांपर ग्रंथगौरवभयसें अतिप्रर यसे उन शास्त्रोंका पाठ वगेरे नहि लिखा है __ और किसीकों विशेष देखनेकीही इच्छा तो श्रीचिदानंदजीकृत आत्मभ्रमोच्छेदनभानु नाम ग्रंथकी पीठिका सहसे, व ३१ से ६८ तक अवश्य देखलेवे, और यह ग्रंथ छपकर तइयार हवा है सा आदिसे अंततक देखना जिस्से इस विषयका परिपूर्ण समाधान होगा, और इस विषयके पहिले बहुत ग्रंथ छप चुके. है, और उनग्रंथोंमे इसविषयका बहुतहि सप्रमाण शास्त्रपाठोंसे प्रत्युत्तर दिया गयाहै, इसलिये उन पुरुषोंकों धन्यवाद है, सत्यार्थ प्रगटकरणेसें, और उनोंके रचे हुवे ग्रंथ ये हैं प्रश्नोत्तरविचार, प्रश्नोत्तरमंजरी, ३ भाग हैं, पर्युषणानिर्णय, आत्मभ्रमोछेदनभानु आदि छपे हैं, इसलिये पिष्टपेषण समजकर मेने इहांपर विशेष नहिं लिखा है, इत्यलं विस्तरेण, __ और ऊपरोक्त विषयकी समूल उत्पत्ति इसतरे भइ है श्रीउद्योतनसूरिजीके ज्ये. छांतेवासी श्रीवर्धमानसूरिजी हूवे, तिनोंके शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिजी हुवे इस अनुक्रमसें अविच्छिन्न जो पाटपरम्परा चली सो खरतर इसनामसें प्रसिद्ध है, यह एकही गच्छसात नामसें प्रसिद्ध है' प्रथम निग्रन्थ, १ कोटिक, २ चन्द्र, ३ वनवासी, ४ सुविहित, ५ खरतर, ६ राजगच्छ, ७ याने धार्मिक ७ क्षेत्र होवे वैसा, भिन्न भिन्न कारणोंसें अतिनिर्मल यह ७ नाम प्रसिद्ध हैं, और श्रीउद्योतनसूरिजी महाराजनें श्रीसिद्धक्षेत्रमें श्रीसिद्धबडके नीचे श्रीसर्वदेवादि भिन्न भिन्न आचार्योंके ८३ शिष्योंकों श्रेष्ठ समयमें मध्यरात्रिसमे अपणे हाथसें आचार्यपद दिया, उसवक्त ८४ गच्छ हवे, इन ८४ सी गच्छोंमे शुद्ध प्ररूपक बडे प्रभाविक आचार्य महाराज हवेहैं सो सर्व पूजनीय For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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