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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९५ पूर्वाभ्यामऽपनेतव्यं, शक्त्या बुद्ध्या च तत् किल । यदिदानींतने काले नास्ति प्राज्ञो भवत्समः॥३॥ अनुशास्तिं प्रतीच्छाव इत्युक्त्वा गुर्जरावनौ । विहरंतो शनैः श्रीमत् पत्तनं प्रापतुर्मुदा ॥४॥ सद्गीतार्थपरीवारौ तत्र भ्रांती गृहे गृहे । विशुद्धोपाश्रयाऽलाभात् वाचां सस्मरतुर्गुरोः॥५॥ श्रीमान् दुर्लभराजाख्यस्तत्र चाऽऽसीदिशांपतिः। गी:पतेरऽप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणात् ॥६॥ इत्यादि उपर्युक्त भावार्थवाला अधिकार बहुत लिखा है तथा श्रीखरतरगच्छकी पट्टावलीमें भी लिखा है कि तदा शास्त्राविरुद्धाऽऽचारदर्शनेन श्रीजिनेश्वरसूरिमुद्दिश्य अतिखरा एते इति दुर्लभराज्ञा प्रोक्तं तत-एव खरतरविरुदं लब्धं तथा चैत्यवासिनो हि पराजयप्ररूपणात् कुंबला इति नामध्येयं प्राप्ता एवं च सुविहितपक्षधारकाः श्रीजिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १०८० वर्षे खरतरविरुदधारका जाताः। - इसतरह अनेकशास्त्रोंमें यह उपर्युक्त अधिकार स्पष्ट लिखा है वास्ते श्रीसोमधर्मगणिजी महाराजकेउचित तथा शास्त्रसंमत सत्यवचनोंमें सर्वथा शंकारहित शुद्धश्रद्धाधारण करें और द्वेषीके शास्त्रविरुद्ध कपोलकल्पित महामिथ्या अनुचित वचनोंपर श्रद्धा नहीं रक्खे क्योंकि शास्त्रविरुद्ध मिथ्यावचनके कदाग्रहसे भवभ्रमण होता है नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजीके शिष्य श्रीजिनवल्लभसरिजीके समयमें खरतरगच्छकी मधुकरशाखा (पाटगादी) सं. ११६७ में अलग हुई है । For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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