SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः- श्री आर्यसिंहगिरिगुरूने गुणानुरागकरनेसे लघुवयकोंभी पाठकपद में स्थापित किया ऐसा और साधुओंको ज्ञान देनेवाला ऐसा ॥ २७ ॥ उज्जेणीए गहिअब्बओ, लहुगुझ्झगेहिं वरिसंते । जो सुजइत्ति निर्मितियपरिक्खिओ पत्ततव्विज्जो २८ अर्थः- गृहीतव्रतउज्जैनी नगरी में यक्षोंनेवरसात के समय में परीक्षाकरनेके लिये आमंत्रण किया और शोभन यह यति है ऐसा जानके देवोंने विद्या दिया ।। २८ ॥ उद्धरिया जेण पयाणुसारिणा गयणगामिणीविज्जा । सुमहापईन्नपुव्वाओ, सव्वहा पसमरसिएण ॥ २९ ॥ अर्थ :- जिसने पदानुसारीसुमहाप्रकीर्ण पूर्वसे सर्वथा समपरिणाममें रक्त ऐसोंने आकाशगामिनीविद्याका उद्धारकिया ऐसे ॥ २९ ॥ दुकालंमि दुवालस, वरसियंमि श्रीयमाणे संघभि । विज्ञावलेणमाणियमन्नं, जेणन्नक्खित्ताओ ॥ ३० ॥ अर्थः- बारहवर्षकेदुः काल में संघखेदपातेहुएको विद्याके बलसे और ठिकानेसे अन्नप्राप्तकिया ऐसे ॥ ३० ॥ सुररायचायविभ्भमभमुहाधणुमुक्कन यणवाणाए । कामग्गिसमीरणविहियपात्थणावयणघट्टणाए ॥ ३१ ॥ अर्थः- इन्द्रधनुपके जैसा भ्रूरूप धनुषसे फेंका है नेत्रप्रान्तरूप चाण जिसने ऐसी कामाग्नि वायुसेकरी है प्रार्थना वचनरूप चेष्टा जिसने ऐसी ॥ ३१ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy