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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७४ वस्तीवासअंगीकारकिया उसीप्रस्तावमें जिनरक्षित शालिभद्र सेठके पुत्रने मातासहित दीक्षालिया तथाथिरचन्द्र वरदत्त नामके दो भाइयोंने प्रव्रज्या लिया तथा जयदत्त नामका मुनि मंत्रवादी भया जयदत्तके पूर्वज मंत्रशक्तियुक्त थे उन सबोंको दुःसाधित रोषातुर भइ दुष्ट देवताने मारा जयदत्त भागा श्रीजिनदत्तमरिजीके शरणे आया तब करुणानिधान शक्तिमान् श्रीपूज्योंने दुष्ट देवतासे बचाया तथा गुणचन्द्र यतिने जिनदत्तसरिके पासमें दीक्षा लिया वह पहले श्रावक था तुर्कोने हाथ देखके यह अच्छा भंडारी होगा यह जानके भागनेके भयसे बेड़ी डालदिया उसने शुद्ध भावसे लाखनौकार गुणा उन्होके प्रभावसे सांकल बेड़ी टूटगइ पहरेवालेने जाना नहीं ऐसा रात्रिके पश्चिमाधमें निकलके कोई वृद्धाके घरमें प्रवेश किया उसने कृपासे कोठीमें रख दिया तुोंने देखा तोभी नहीं मिला वाद रात्रिमें निकलकर अपने देश गया और वैराग्य होगया श्रीपूज्योंके पासमें दीक्षा ग्रहण किया और रामचन्द्रगणी जीवानन्द पुत्रसहित अन्यगच्छसे भव्यधर्म जानके श्रीजिनदत्तसूरिजीकी आज्ञा अंगीकार करी और ब्रह्मचन्द्र गणीने सुविहित पक्षमें दीक्षा लिया इन्होंमें जिनरक्षित, शीलभद्र थिरचन्द्र वरदत्त प्रमुख साधुओने और श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री वगेरेहः साध्विओंने वृत्ति पंजिकाटीकादिलक्षणशास्त्रपढ़नेकेकास्ते धारानगरीभेजे इन्होंने वहां जाके भक्तिवान् महर्द्धिक श्रावक के सहायसे वह व्याकरणादिसबपड़े आप श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने रुद्रपल्लीके तरफ विहारकिया मार्गमें चलते हुए एकग्राममें ठहरे वहां एक For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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